रूह छूकर कोई गुजरे तो मोहब्बत कहना, जिस्म छूकर तो हवाएं भी गुजर जाती हैं।

स्मृति शेष : इमरोज़
कल इस दौर के राँझा इमरोज़ ने नश्वर शरीर त्याग दिया, मूलतः उनकी पहचान अमृता प्रीतम के साथी, चित्रकार और शायर की ही रही है ।
जितना मैं उन्हें जानता और समझ पाया हूँ वो प्यार की पावनता और समर्पण के प्रतीक पुरुष थे,
अपने कॅरियर को ही नहीं इमरोज़ ने अपने वजूद को ही अमृता प्रीतम में समाहित और विलीन कर दिया था।
"रूह ने उसकी कहा मरघट से कल
ए दोस्तों, उम्र ही हारी है मेरी जिंदगी हारी नहीं"
मैं और डॉ. श्वेता श्रीवास्तव इमरोज़ पर अपनी प्रकाशनाधीन पुस्तक "मेरा रांझा" को मुंबई जाकर उनके समक्ष रखना चाहते थे परंतु नियति उन्हें वहाँ ले गई जहाँ 2005 से कोई उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।
मेरी उनसे पहली मुलाक़ात अदम गोंडवी जी के माध्यम से उनके निवास पर हुई, उनकी बेहतरीन पेंटिंग्स के साथ-साथ अमृता प्रीतम व उनका अपना कमरा और उनकी ज़ुबानी कहूँ तो उनके प्यार का नायाब घर था।
इमरोज़ अच्छी तरह जानते थे कि अमृता प्रीतम साहिर से मोहब्बत करती थी पर सच्चा प्यार कहाँ यह सब मानता और समझ पाता है , उनकी स्कूटर के पीछे बैठ कर अमृता अक़्सर साहिर का नाम उन्ही की पीठ पर उकेरा करती थी तब भी इमरोज़ के चेहरे पर शिकन का नामोनिशान होता था।
सच कहूँ तो इमरोज़ कोई हो नहीं सकता इस लिए नहीं की वो एक महान प्रेमी के रूप में समाज में नज़र आते थे बलिक इस लिए की वो एक सरल व्यक्तित्व और विशाल ह्रदय के इंसान थे।
मेरा 25 हौज खास (दिल्ली) जाना दिन पर दिन बढ़ गया था क्योंकि इमरोज़ की निश्चलता उनका सम्मोहक व्यक्तित्व मुझे मुरीद बन चुका था उनका!! उनकी अमृता से मोहब्बत को समझने के लिए सच्चे प्यार की दृष्टि की आवश्यकता थी, इसके लिए अमृता जी की लंबी बीमारी में जिस भावना से इमरोज़ उनकी सेवा सुश्रसा करते थे वो उनके क़रीबी ही जान सके, 2005 में अपूर्वा सम्मान अमृता प्रीतम को उनके घर पर दिया जाना था मैंने राजधानी के कुछ बड़े साहित्यकारों की नाराज़गी उठाई और सम्मान
इमरोज़ के हाथों दिलवा दिया मुझे लगता था कि उनसे बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था।
उस दिन भी बहुत रोया था और आज भी
कितना बेचैन उसे लेने को गंगाजल था, जो भी धारा था उसी के लिए वो बेकल था प्यार उनका भी तो गंगाजल की तरह निर्मल था ।
अलविदा राँझा