Qutb Ud Din Aibak : हिंद का वो शासक जो 'गुलाम' ही रहा

Qutb Ud Din Aibak- The story of first slave ruler | The Delhi Sultanate: Slave Dynasty
 
Qutb Ud Din Aibak- The story of first slave ruler | The Delhi Sultanate: Slave Dynasty
क्या आपने कभी गुलामों के कारोबार के बारे में सुना है? तारीख में जाएं तो कई साम्राज्यों ने गुलामी प्रथा का पालन किया है और मुस्लिम साम्राज्य भी इससे अछूता नहीं रहा है... हालांकि, कुरान में मुसलमानों को दूसरे मुसलमानों को गुलाम बनाने की इजाज़त नहीं दी गई है

... इसलिए कोई मुसलमान किसी आज़ाद मुसलमान को पकड़कर उसे गुलाम नहीं बना सकता या उसे गुलामी में नहीं बेच सकता... लेकिन इस्लाम से पहले गुलामी की प्रथा अरब समाज का एक अहम हिस्सा हुआ करती थी... यही वजह है कि इस्लाम में मनाही के बावजूद भी गुलामी प्रथा फलती-फूलती रही... खैर, आज हम आपको एक ऐसे गुलाम के बारे में बताने जा रहे हैं, जो एक बड़े साम्राज्य का शासक बनने के बाद भी गुलाम ही रहा... जी हां, हम आपको दो बार बिकने वाला उस ‘गुलाम’ के बारे में बताने जा रहे हैं जो दिल्ली में सिंहासन पर बैठा और मुस्लिम साम्राज्य की नींव रख डाली... इस कहानी को आप आखिर तक देखिएगा... आपको कई अहम जानकारियां जानने को मिलेंगी जो इससे पहले आपने शायद पहले कभी नहीं सुनीं होंगी... चलिए बिना देर किए हुए आपको उस गुलाम बादशाह के बारे में तफ्सील से बताते हैं..


800 साल पीछे जाना पड़ेगा

इस कहानी को जानने के लिए हमें 800 साल पीछे जाना पड़ेगा... उस दौर में सुल्तान मोइज़ुद्दीन ग़ौरी अफ़ग़ानिस्तान के शहर और अपनी राजधानी ग़ज़नी में विलासिता की महफ़िलें सजाते थे और अपने सलाहकारों की समझदारी की बातें सुनते थे... इसी तरह की एक पारंपरिक महफ़िल सजी हुई थी और वहां मौजूद सभी अपने प्रदर्शन और हाजिर जवाबी और छंदों और ग़ज़लों के साथ बादशाह का मनोरंजन कर रहे थे, इसके बदले में उन्हें तोहफों से नवाज़ा जा रहा था.

 उस रात सुल्तान ग़ौरी अपने दरबारियों और अपने ग़ुलामों को उपहार, जवाहरात और सोने चांदी से मालामाल कर रहे थे... उनमें से एक दरबारी और ग़ुलाम ऐसा था, जिसने दरबार से बाहर आने के बाद अपना सारा इनाम, अपने से कम हैसियत रखने वाले तुर्कों, पहरेदारों, सफ़ाई करने वालों, ग़ुलामों और दूसरे काम करने वालों को दे दिया... ये बात जब फैली तो सुल्तान के कानों तक भी पहुंच गई और उनके मन में इस दरियादिल इंसान के बारे में जानने की इच्छा पैदा हुई कि आख़िर ये उदार व्यक्ति कौन है... सुल्तान को बताया गया कि ये उनका ग़ुलाम क़ुतबुद्दीन ऐबक है.


ग़ौरी साम्राज्य के इतिहासकार मिन्हाज-उल-सिराज ने भी इस घटना का ज़िक्र अपनी किताब तबक़ात-ए-नासिरी में किया है... उन्होंने न केवल ऐबक का दौर देखा, बल्कि उनके बाद सुल्तान शम्सुद्दीन इलतुतमिश और गयास-उद-दीन बलबन का दौर भी देखा... मिन्हाज-उल-सिराज लिखते हैं कि मोहम्मद ग़ौरी को ऐबक की उदारता ने बहुत प्रभावित किया और उन्होंने ऐबक को अपने क़रीबियों में शामिल कर लिया, और उन्हें सिंहासन और दरबार के महत्वपूर्ण कार्य सौंपे जाने लगे... यहां तक कि वो साम्राज्य के बड़े सरदार भी बन गए... उन्होंने अपनी प्रतिभा से इतनी तरक़्क़ी कर ली कि उन्हें अमीर आख़ोर बना दिया गया...

अमीर आख़ोर उस समय शाही अस्तबल के दरोग़ा का पद होता था और इसकी बहुत अहमियत थी... Encyclopaedia of Islam के Second Edition में इसे एक हज़ार का सरदार कहा गया है, जिसके अधीन तीन सरदार होते थे जिन्हें 40 का सरदार कहा जाता था... क़ुतबुद्दीन ऐबक वो मुस्लिम शासक हैं जिन्होंने भारत में एक ऐसी सल्तनत स्थापित की जिस पर अगले 600 सालों तक यानी 1857 के ग़दर तक मुस्लिम शासक शासन करते रहे... उन्हें ग़ुलाम सल्तनत या ग़ुलाम वंश का संस्थापक कहा जाता है, लेकिन जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में मध्यकालीन इतिहास के इतिहासकार प्रोफ़ेसर नजफ़ हैदर का कहना है कि उन्हें या उनके बाद के बादशाहों को ग़ुलाम बादशाह नहीं कहा जा सकता है... उन्हें तुर्क या ममलूक कहा जा सकता है...

दक्षिण एशियाई इस्लाम के प्रोफ़ेसर मोइन अहमद निज़ामी बताते हैं कि क़ुतबुद्दीन ऐबक का ताल्लुक तुर्की के ऐबक क़बीले से था और बचपन में ही वो अपने परिवार से अलग हो गए और ग़ुलाम बाज़ार में बेचने के लिए उन्हें नेशापुर लाया गया था... एक शिक्षित व्यक्ति, क़ाज़ी फ़ख़रुद्दीन अब्दुल अज़ीज़ कूफ़ी ने उन्हें ख़रीदा और उनके साथ अपने बेटे की तरह व्यवहार किया और उनकी शिक्षा और सैन्य प्रशिक्षण की उचित देखभाल की... इतिहास की प्रसिद्ध किताब 'तबक़ात नसीरी' में मिन्हाज-उल-सिराज ने लिखा है कि ऐबक के नए अभिभावक क़ाज़ी, फ़ख़रुद्दीन अब्दुल अज़ीज़ कोई और नहीं बल्कि इमाम अबू हनीफ़ा के वंशजों में से थे और वो नेशापुर और उसके आसपास के इलाक़े के शासक थे... वो लिखते हैं कि क़ुतबुद्दीन ने क़ाज़ी फ़ख़रुद्दीन की सेवा के साथ उनके बेटों की तरह, क़ुरान की शिक्षा हासिल की और घुड़सवारी और तीरंदाज़ी का भी प्रशिक्षण लिया... इसलिए कुछ ही दिनों में वो माहिर हो गए और उनकी तारीफ़ होने लगी... ऐसा कहा जाता है कि क़ाज़ी फ़ख़रुद्दीन की मौत के बाद, उनके बेटों ने ऐबक को फिर से एक व्यापारी को बेच दिया, जो उन्हें ग़ज़नी के बाज़ार में ले आया जहां से सुल्तान ग़ाज़ी मुईज़ुद्दीन साम यानी सुल्तान मोहम्मद ग़ौरी ने उन्हें ख़रीद लिया... 

क़ुतबुद्दीन के बारे में कहा जाता है कि वो तुर्की के ऐबक क़बीले के थे, लेकिन उनके पिता और क़बीले के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी... इतिहास की किताबों में उनके जन्म की तारीख़ 1150 दर्ज है लेकिन साफ तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है... हालांकि, तुर्की भाषा में ऐबक के मायने "चंद्रमा का स्वामी या मालिक" होता है... और कहा जाता है कि इस क़बीले को ये उपनाम इसकी सुंदरता के कारण मिला था... यानी इस क़बीले के लोग महिलाएं और पुरुष दोनों ही बहुत ख़ूबसूरत होते थे... लेकिन क़ुतबुद्दीन के बारे में कहा जाता है कि वो इतने सुंदर नहीं थे...

खैर, अब चलिए जानते हैं कि क़ुतबुद्दीन का भारत में कैसे और क्यों आना हुआ... दरअसल जब मोहम्मद गौरी ने भारत की तरफ अपना रुख किया तो ऐबक ने तराइन की दूसरी जंग में युद्ध कौशल दिखाया... जिसके बाद गौरी की जीत हुई... हालांकि पहली जंग में गौरी की हार हुई थी... पहली जंग राजपूत राजा पृथ्वी राज चौहान के साथ हुई जिसमें गौरी हार गया था... पहली हार के बाद गौरी ने सबक लिया और दोबारा जीत हासिल हुई... अपनी जीत से खुश होकर गौरी ने ऐबक को सेना में कई महत्वपूर्ण पद दिए... उस जंग के बाद से भी भारत में ऐबल के राजनीतिक जीवन का आगाज हुआ... साल 1206 में मुईज़ुद्दीन ग़ौरी की मौत के बाद ऐबक दिल्ली के सिंहासन पर काबिज हुए... चूंकि मुहम्मद गोरी ने अंतिम समय तक उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया था, इसलिए उस दौर में सर्वोच्च गुलाम को ही शासक बना दिया गया था...

ऐबक ने अपनी पूरी ज़िंदगी मोहम्मद गौरी की विस्तार नीति का पालन किया... अपने शासनकाल ने उन्होंने 1193 में अजमेर के अलावा हिन्दू राज्य सरस्वती, समाना, कहरान और हांसी को जीतकर अपना झंडा फहराया... इसके बाद कन्नौज के राजा जयचंद को चंदवार के युद्ध में हराकर दिल्ली को जीत लिया... 10 से 12 महीनों के अंदर ही ऐबक ने राजस्थान से गंगा-जमुना के संगम तक के इलाकों को अपनी सल्तनत में शामिल कर लिया...

ऐबक को वास्तुकला यानी architecture का बहुत शौक था, यही वजह थी कि उसने 1199 में मीनार का निर्माण कराया... कुतुब मीनार के साथ कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद की नींव भी रखी... अजमेर में जीत हासिल करने के बाद ऐबक ने मस्जिद का निर्माण कराया, जिसे ढाई-दिन का झोंपड़ा कहा गया... यह उत्तर भारत में बनी पहली मस्जिद थी... 


 
खैर, 1210 में, पोलो खेलते समय एक दुर्घटना में कुतुब-उद-दीन ऐबक की मौत हो गई... वो घुड़सवारी करते समय गिर गए और गंभीर रूप से ज़ख्मी हो गए थे... उन्हें अनारकली बाजार के पास लाहौर में दफनाया गया था... बाद में एक और गुलाम इल्तुतमिश, ने उनकी जगह ले ली जो सुल्तान के बराबर पहुंचे, और इस तरह गुलाम साम्राज्य का विस्तार हुआ... बहरहाल, कुतबुद्दीन ऐबक को लेकर आज के दौर में सबकी अलग-अलग धारणाएं हैं... कोई उन्हें क्रूर शासक कहता है जिसने अपनी सल्तनत रखने के लिए हज़ारों कत्ल कर डाले तो किसी के लिए वो महान योद्धा हैं

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