सारंग घूमे रेत खेत शीतल नीर की चाह में खोज रहा ताल बावड़ी सूखे कंठ की आग में ना छांव कहीं दूर तक,ना बावड़ी तालाब है पीला सूरज माथे ऊपर बस रेत का सैलाब है,

 
Nitu mathur
 

मृग तृष्णा ::

सारंग घूमे रेत खेत शीतल नीर की चाह में 
खोज रहा ताल बावड़ी सूखे कंठ की आग में 
ना छांव कहीं दूर तक,ना बावड़ी तालाब है 
पीला सूरज माथे ऊपर बस रेत का सैलाब है,

गरम खामोशी की बेड़ियों में कैद है सृष्टि 
काले सूखे पत्ते उड़ते देखे जहां तक दृष्टि 
ना मेघ ठंडा ना कोई  झूठी काली बदरी है 
रेत मे धंसते पैरों तले तेज तपती धरती है, 

मृग तृष्णा से घूम रहा सारंग अब बेहाल है 
तेज से धीमी, धीमी से धीमी उसकी चाल है 
कौन है जो अब तक जिंदा है ले रहा है सांसे
इस कठोर ताप को झेल रहा खोल के बाहें,

ये मैं हूं जिंदा हूं चल रही है अब तक धड़कन 
हाड़ मांस का पुतला हूं ईश्वर अमूल्य सृजन 
हर ऋतु अवधि से बंधी सबका मोल समान 
यईश्वर का खेला सारा क्यूं तू हैरान परेशान,

बन जटिल बन विशेष हर समय को पारकर 
स्वर्ण समान तपकर मूल्यवान सा बन निखर 
मृग को भी ताल मिलेगा उसका कंठ भी तृप्त होगा 
पूर्ण अभिलाषा होगी सबकी जब जिसका नंबर होगा।

                            ~नीतू माथुर

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