क्रांति की ज्वाला थीं शांति घोष और सुनीति चौधरी प्रेरणा, साहस और निर्भयता की अमर प्रतीक
Shanti Ghosh and Suniti Chowdhury were the flames of the revolution.
Immortal symbols of inspiration, courage, and fearlessness.
(प्रमोद दीक्षित मलय – विभूति फीचर्स) 14 दिसंबर 1931 की वह सुबह देखने में सामान्य थी। ठंड की हल्की चादर ओढ़े प्रकृति शांत थी। सड़कों पर ओस चमक रही थी, पेड़ मौन साधे खड़े थे और दिनचर्या अपने नियमित क्रम में आगे बढ़ रही थी। रसोईघरों से उठती चाय और मसालों की खुशबू, स्कूल जाते बच्चों की चहल-पहल और इक्का-तांगों की टक-टक—सब कुछ जीवन की सहज लय को दर्शा रहा था।

लेकिन इसी शांत वातावरण के भीतर बंगाल के कोमिला ज़िले (वर्तमान बांग्लादेश) में अंग्रेजी सत्ता के अत्याचारों के विरुद्ध असंतोष की ज्वाला धधक रही थी। जिला मजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफ्री बॉकलैंड स्टीवंस अपने दमनकारी व्यवहार और भारतीयों के प्रति क्रूरता के लिए कुख्यात था। जनता और क्रांतिकारी संगठन उसके अत्याचारों से त्रस्त थे और उसे दंड देने की योजना बन चुकी थी।
उस सुबह स्टीवंस भारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच अपने बंगले से ही प्रशासनिक कार्य देख रहा था। तभी बंगले के मुख्य द्वार पर एक घोड़ागाड़ी आकर रुकी। उसमें से लगभग 14–15 वर्ष की दो किशोरियाँ उतरीं और निडरता से आगे बढ़ीं। पहरेदार ने उन्हें रोककर पूछताछ की। लड़कियों ने बताया कि वे स्कूल में आयोजित तैराकी प्रतियोगिता के लिए अनुमति और सहयोग मांगने आई हैं। उन्होंने अपने छद्म नाम लिखी पर्ची सौंप दी। तलाशी के बाद उन्हें भीतर जाने की अनुमति मिल गई।
कुछ ही क्षणों में वे मजिस्ट्रेट के कक्ष में थीं। आत्मविश्वास से भरी एक किशोरी ने परिचय दिया—“मैं शांति घोष हूँ, फैजन्नुसा गर्ल्स हाई स्कूल की छात्रा और छात्रा संघ की सचिव। यह मेरी सहयोगी सुनीति चौधरी हैं।”उनकी स्पष्टता और निर्भीकता ने स्टीवंस को प्रभावित किया। अनुमति पत्र सामने रखा गया। स्टीवंस ने कहा कि आवेदन में प्रधानाचार्य के हस्ताक्षर और मुहर नहीं है। जैसे ही वह टिप्पणी लिखने के लिए झुका, उसी क्षण दोनों किशोरियों ने अपनी स्वचालित पिस्तौलें निकालकर उसके सीने पर गोलियाँ दाग दीं। स्टीवंस भागने की कोशिश में गिर पड़ा और वहीं उसकी मृत्यु हो गई।
गोलियों की आवाज़ सुनकर सिपाही भीतर घुसे और दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके चेहरे पर भय नहीं, बल्कि लक्ष्य की प्राप्ति का तेज़ था। दिनदहाड़े, कड़ी सुरक्षा के बीच एक अंग्रेज अधिकारी का वध—यह घटना ब्रिटिश सत्ता के लिए गहरा आघात बनी और इसकी गूंज लंदन तक पहुँची।
18 जनवरी 1932 को दोनों को अदालत में पेश किया गया। वे गर्व और दृढ़ता के साथ चल रही थीं। उनकी उम्र 16 वर्ष से कम होने के कारण उन्हें फाँसी नहीं दी जा सकी। अंततः 27 जनवरी 1932 को आजीवन कारावास की सज़ा देकर उन्हें काला पानी भेज दिया गया। जेल जीवन में उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी गईं, लेकिन उनका साहस कभी डगमगाया नहीं।
1939 में महात्मा गांधी और ब्रिटिश सरकार के बीच हुए समझौते के बाद दोनों को रिहा किया गया। रिहाई के बाद शांति घोष ने शिक्षा पूरी की, विवाह किया और राजनीति में सक्रिय रहीं। वे 1952 से 1967 तक पश्चिम बंगाल विधानसभा और परिषद की सदस्य रहीं। 1989 में उनका निधन हुआ।सुनीति चौधरी ने भी सादगीपूर्ण सामाजिक जीवन जिया और 1988 में इस संसार से विदा ली।
स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इन दोनों वीरांगनाओं को वह स्थान नहीं मिला जिसकी वे अधिकारी थीं। न उनके नाम पर संस्थान बने, न उनके योगदान को पर्याप्त स्मरण मिला। किंतु इतिहास की उपेक्षा से उनका त्याग छोटा नहीं हो जाता। शांति घोष और सुनीति चौधरी क्रांति की अग्नि थीं—प्रेरणा का उजास और निर्भयता की मशाल। भारत माता के चरणों में अर्पित ये दोनों पुष्प युगों-युगों तक स्वतंत्रता के गौरव की सुगंध फैलाते रहेंगे।
