सब एक कर जा ::

झुलसते तपते दिन की शीतल शाम बन जा
गरम मिजाज़ धूप की संतरी छांव बन जा
ठंडे गीली राहत के छींटे बरसा दे चेहरे पे
अपने जादू से आंसू और पानी एक कर जा,
मौसम पर तेरा ज़ोर चाहे ना सही मगर
अंदर की गर्मी को तू बाहर धुआं कर दे
बरफ की तासीर चाहे गरम ही सही
कुछ ठंडे अहसास से तू मन को भीगो जा,
एक दौर था हमें जेठ के दिन भी भाते थे
ठंडे लीपे कच्चे आंगन के खेल गुदगुदाते थे
अब इस शहर की गर्मी से घुटन सी होती है
पैर जलते हैं जब संगमरमर पे कदम पड़ते हैं,
या तो फिर मुझे उस रेत के दौर में ले जा
जहां बालू रात में ठंडा बिस्तर सा बिछा देती है
या खुद वो दौर बनके समंदर सा बह के आजा
समा ले मुझे ख़ुद में या फिर तु मुझ में समां जा,
झुलसते तपते दिन की शीतल शाम बन जा
गरम मिजाज़ धूप की संतरी छांव बन जा
ठंडे गीली राहत के छींटे बरसा दे चेहरे पे
अपने जादू से आंसू और पानी एक कर जा।
~नीतू माथुर