"अखिलेश यादव, मस्जिद मीटिंग और वोट की सियासत: क्या मुस्लिम वोट बैंक खिसक रहा है?"
Akhilesh Yadav mosque meeting row उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुस्लिम वोट बैंक हमेशा से एक अहम भूमिका निभाता रहा है। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव पर हाल ही में आरोप लगे हैं कि उन्होंने संसद में बनी मस्जिद में जाकर एक बैठक की, जिसका उद्देश्य मुसलमानों को फिर से अपनी तरफ आकर्षित करना था। भाजपा ने इस पर तीखा हमला करते हुए कहा कि यह केवल मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति है। सवाल यह उठता है कि क्या वाकई समाजवादी पार्टी अब अपने पारंपरिक वोट बैंक को खोती जा रही है? और क्या यह चिंता अखिलेश यादव को बार-बार मुस्लिम समुदाय को लुभाने पर मजबूर कर रही है?
मुस्लिम वोट बैंक का इतिहास और बदलाव:
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय की आबादी करीब 19-20% है। यह एक ऐसा वोट बैंक है जो किसी भी पार्टी के लिए जीत का रास्ता बना या बिगाड़ सकता है। लंबे समय तक मुसलमानों का झुकाव कांग्रेस, फिर समाजवादी पार्टी (SP) और कभी-कभी बहुजन समाज पार्टी (BSP) की ओर रहा है। लेकिन 2022 के विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनावों ने एक नया ट्रेंड दिखाया — मुस्लिम वोट का छोटा सा हिस्सा अब भाजपा की तरफ भी जाने लगा है।
2022 और 2024 में मुस्लिम वोट का ट्रेंड:
साल 2022 में भाजपा को लगभग 7% मुस्लिम वोट मिले थे, जो 2024 के लोकसभा चुनाव में बढ़कर 8% हो गए। यह आंकड़ा भले ही छोटा लगे, लेकिन राजनीति की गणित में यह बड़ा संकेत है। यह बताता है कि अब मुसलमानों का एक छोटा वर्ग भाजपा की ओर रुझान दिखा रहा है, जो समाजवादी पार्टी के लिए चिंता का विषय है।
मस्जिद में मीटिंग और रोज़ा इफ्तार की राजनीति:
हाल ही में अखिलेश यादव संसद परिसर में बनी मस्जिद में पहुंचे और वहाँ मुस्लिम नेताओं के साथ मीटिंग की। इसके बाद भाजपा ने उन पर आरोप लगाया कि वह खुलकर मुस्लिम वोटों को साधने की कोशिश कर रहे हैं।
यह पहली बार नहीं है जब अखिलेश यादव ने मुस्लिम समुदाय को लुभाने के लिए ऐसा कोई कदम उठाया हो। बतौर मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने इफ्तार पार्टी का आयोजन अपने आधिकारिक आवास पर किया। यहां तक कि चुनावी समय में मुस्लिम प्रतीकों का सहारा लेना समाजवादी पार्टी की रणनीति का हिस्सा रहा है।
क्या यह तुष्टीकरण है या लोकतांत्रिक जुड़ाव?
समाजवादी पार्टी इसे ‘सांप्रदायिक सौहार्द्र’ कहती है, जबकि भाजपा और अन्य आलोचक इसे खुला तुष्टीकरण मानते हैं। सवाल यह है कि क्या एक धर्म विशेष के त्योहारों और धार्मिक स्थानों पर जाकर राजनीति करना वाजिब है? और अगर ऐसा है, तो फिर सभी दल इसमें क्यों शामिल हैं?
सिर्फ अखिलेश ही नहीं, ये सब भी करते रहे हैं इफ्तार की राजनीति:
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इंदिरा गांधी – उन्होंने बतौर प्रधानमंत्री इफ्तार पार्टियों की शुरुआत की थी।
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हेमवती नंदन बहुगुणा – उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते उन्होंने भी इफ्तार आयोजनों को बढ़ावा दिया।
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मायावती – अपने कार्यकाल में उन्होंने इफ्तार पार्टी का आयोजन फाइव स्टार होटल में किया था।
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राजनाथ सिंह और कल्याण सिंह – भाजपा के ये मुख्यमंत्री भी इफ्तार पार्टियों का आयोजन कर चुके हैं।
इससे यह स्पष्ट होता है कि इफ्तार पार्टी की राजनीति किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं रही है। सभी दलों ने समय-समय पर इसका प्रयोग किया है मुस्लिम वोटों को लुभाने के लिए।
अखिलेश यादव का मंदिर से परहेज़?
भाजपा का बड़ा आरोप है कि अखिलेश यादव मुस्लिम वोट के चक्कर में हिंदू प्रतीकों से दूरी बना रहे हैं। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के दौरान वह वहाँ नहीं गए, जबकि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के अन्य नेता वहां की यात्राएं करते रहे।
यह मुद्दा भाजपा द्वारा खास तौर पर उठाया जाता है कि अखिलेश यादव राम मंदिर नहीं गए, लेकिन संसद में बनी मस्जिद में मीटिंग के लिए तुरंत पहुंच गए। इससे यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि अखिलेश की प्राथमिकता केवल मुस्लिम वोट बैंक है।
राजनीति का असली चेहरा – सबका साथ या सिर्फ वोट की बात?
भारतीय राजनीति में धर्म, जाति और समुदाय के नाम पर वोट मांगना कोई नई बात नहीं है। लेकिन जब कोई नेता बार-बार एक ही समुदाय को प्राथमिकता देता है, तो जनता सवाल उठाती है।
क्या अखिलेश यादव की चिंता वास्तव में समुदाय के कल्याण को लेकर है, या फिर यह सिर्फ वोट बैंक की रणनीति है?
अखिलेश यादव की मस्जिद मीटिंग और इफ्तार राजनीति पर उठते सवाल कोई अचानक नहीं हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुस्लिम वोटों की अहमियत को सभी पार्टियाँ समझती हैं और समय-समय पर धार्मिक प्रतीकों का सहारा लेती रही हैं।
लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत की राजनीति सिर्फ धार्मिक प्रतीकों और तुष्टीकरण पर टिकी रहनी चाहिए?
या अब वक्त आ गया है कि विकास, शिक्षा, रोजगार जैसे मुद्दे असली एजेंडा बनें?
