बुर्का बैन: क्यों कई देश लगा रहे हैं पाबंदी?

 
burqua ban in many countries

Burqa ban बुर्का, जो कि मुस्लिम महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला पारंपरिक परिधान है, आज पूरी दुनिया में बहस का विषय बन चुका है। कई यूरोपीय देशों ने इस पर पाबंदी लगाई है और कुछ मुस्लिम बहुल देशों में भी इस पर बहस हो रही है। हाल ही में डेनमार्क सरकार ने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में बुर्का पहनने पर पाबंदी लगा दी है। इसके पहले 2018 में डेनमार्क ने सार्वजनिक स्थलों पर भी बुर्का पहनने पर रोक लगाई थी। वहीं, स्विट्ज़रलैंड में भी 1 जनवरी 2025 से बुर्का पहनना कानूनी रूप से वर्जित कर दिया गया है।

यह प्रश्न अब उठता है कि आखिर क्यों इतने देश बुर्के पर पाबंदी लगाने की ओर अग्रसर हो रहे हैं? क्या यह धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है, या फिर आधुनिक समाज में एकरूपता और सुरक्षा की ज़रूरत है?

बुर्का क्या है?

बुर्का एक ऐसा वस्त्र है जो महिला के पूरे शरीर और चेहरे को ढकता है, अक्सर केवल आंखें ही दिखाई देती हैं या कभी-कभी आंखों के आगे भी जाली लगी होती है। यह मुख्यतः इस्लामिक संस्कृति से जुड़ा हुआ परिधान है, हालांकि इसका अनुपालन भिन्न-भिन्न देशों और समुदायों में अलग-अलग होता है। कुछ देश इसे धार्मिक आवश्यकता मानते हैं, तो कुछ इसे महिलाओं की स्वतंत्रता पर बंधन के रूप में देखते हैं।

डेनमार्क का ताज़ा फैसला

डेनमार्क सरकार ने अब अपने उच्च शिक्षण संस्थानों—कॉलेज और विश्वविद्यालयों—में बुर्का पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया है। इससे पहले 2018 में वहाँ सार्वजनिक स्थलों पर बुर्का पहनने पर प्रतिबंध लगाया गया था। डेनमार्क सरकार का तर्क है कि यह प्रतिबंध "डेनिश संस्कृति में सामाजिक एकरूपता" बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इसके अलावा, सुरक्षा कारणों का भी हवाला दिया गया है, जहां चेहरे को पूरी तरह ढकने से व्यक्ति की पहचान मुश्किल हो जाती है।

स्विट्ज़रलैंड में क्या हुआ?

स्विट्ज़रलैंड में 2021 में एक जनमत संग्रह हुआ, जिसमें 51.2% लोगों ने बुर्का बैन के पक्ष में वोट दिया। इसके बाद सरकार ने घोषणा की कि 1 जनवरी 2025 से बुर्का और अन्य चेहरा ढकने वाले परिधानों पर सार्वजनिक स्थलों पर पाबंदी लागू हो जाएगी। इस फैसले को वहां "वस्त्र के ज़रिए धार्मिक प्रतीकों के सार्वजनिक प्रदर्शन" पर नियंत्रण के रूप में देखा गया।

भारत का संदर्भ – कर्नाटक हिजाब विवाद

भारत में भी हिजाब को लेकर बड़ा विवाद सामने आया जब कर्नाटक के कुछ कॉलेजों में मुस्लिम छात्राओं को हिजाब पहनकर कक्षा में आने से रोका गया। यह मामला हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि हिजाब पहनना उनका धार्मिक अधिकार है, जबकि कॉलेज प्रशासन और राज्य सरकार का मत था कि यूनिफॉर्म की नीति के तहत सभी छात्रों के लिए एक समान ड्रेस कोड होना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ इस मामले में अलग-अलग मत में थी, इसलिए अब यह मामला बड़ी बेंच के पास लंबित है।

मुस्लिम देशों में भी बहस

सिर्फ पश्चिमी देशों में ही नहीं, कुछ मुस्लिम देशों में भी बुर्का को लेकर सवाल उठाए गए हैं। मिस्र, ट्यूनिशिया और सीरिया जैसे देशों ने अलग-अलग समय पर विश्वविद्यालयों और कुछ सार्वजनिक स्थलों पर बुर्का पर प्रतिबंध लगाया है। इन देशों का भी तर्क यही है कि धार्मिक परिधान को पब्लिक स्पेस में सीमित किया जाना चाहिए ताकि पहचान सुनिश्चित की जा सके और आधुनिक शिक्षा व समाज में समानता बनी रहे।

सुरक्षा कारण: बुर्का बनाम पहचान

बुर्का पर प्रतिबंध लगाने वाले देशों का एक मुख्य तर्क यह है कि चेहरा पूरी तरह ढकने वाले कपड़े से व्यक्ति की पहचान मुश्किल हो जाती है, जिससे सुरक्षा को खतरा हो सकता है। विशेषकर हवाई अड्डों, बैंक, सरकारी कार्यालयों जैसे स्थानों पर जहां पहचान अनिवार्य होती है, वहां बुर्का एक चुनौती बन सकता है।

इसके अलावा, कई देशों में इस्लामिक चरमपंथ और आतंकवाद के खतरे को देखते हुए बुर्का जैसे कपड़ों पर संदेह की दृष्टि से भी देखा जाता है।

आलोचना: धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला?

दूसरी ओर, मानवाधिकार कार्यकर्ता और मुस्लिम संगठनों का कहना है कि यह प्रतिबंध धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। उनका तर्क है कि अगर कोई महिला स्वेच्छा से बुर्का पहनती है, तो उसे रोका जाना गलत है। यह महिलाओं की पसंद और उनके अधिकारों का हनन है।

कई आलोचक यह भी कहते हैं कि यह कानून मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाता है और धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ावा देता है।

सामाजिक समावेशिता या जबरदस्ती?

बुर्का बैन समर्थक यह दावा करते हैं कि यह फैसले समाज में समानता और समावेशिता को बढ़ाते हैं, जबकि विरोधी इसे धार्मिक दमन मानते हैं। यह बहस अब केवल बुर्के तक सीमित नहीं रह गई है, बल्कि यह आधुनिक समाज में धर्म, संस्कृति, और व्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर व्यापक चर्चा का विषय बन गई है।

बुर्का बैन का मुद्दा बेहद संवेदनशील और बहुआयामी है। एक ओर जहां यह आधुनिक समाज की सुरक्षा, समानता और एकरूपता की जरूरतों को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर यह धार्मिक स्वतंत्रता और व्यक्ति की पसंद के अधिकार को चुनौती देता है। डेनमार्क और स्विट्ज़रलैंड जैसे देशों के फैसले इस दिशा में वैश्विक संकेत देते हैं कि भविष्य में और भी देश इस राह पर चल सकते हैं।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में यह सवाल और भी जटिल हो जाता है जहां संविधान हर नागरिक को धर्म की स्वतंत्रता देता है। अतः, ऐसी किसी भी नीति को बनाते समय गहन संवाद, संवेदनशीलता और संतुलन आवश्यक है।

यदि यह प्रवृत्ति वैश्विक स्तर पर जारी रही, तो भविष्य में यह बहस और तेज़ हो सकती है कि – क्या बुर्का पहनना अधिकार है या रुकावट?

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