katchadeevu issue कच्चतीवू विवाद: इतिहास, सियासत और मछुआरों की पीड़ा

कच्चतीवू द्वीप (Katchatheevu Island) एक छोटा सा द्वीप है जो भारत और श्रीलंका के बीच स्थित है, लेकिन इसका राजनीतिक, कूटनीतिक और संवैधानिक महत्व बहुत बड़ा है। यह द्वीप एक बार फिर से चर्चा में है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने इसके इतिहास पर कांग्रेस सरकार की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए हैं। सुप्रीम कोर्ट में भी इस पर सुनवाई जारी है।
तो आखिर कच्चतीवू है क्या? इसे भारत ने क्यों और कैसे श्रीलंका को सौंप दिया? और अब यह मुद्दा क्यों गरमाया हुआ है? आइए इस पूरे विवाद को विस्तार से समझते हैं।
🔷 कच्चतीवू क्या है?
कच्चतीवू एक छोटा, निर्जन द्वीप है जो तमिलनाडु के रामेश्वरम से लगभग 33 किलोमीटर दूर और श्रीलंका के जाफना से लगभग 62 किलोमीटर दूर स्थित है। इसका क्षेत्रफल लगभग 285 एकड़ है। यह द्वीप मछुआरों के लिए बहुत अहम रहा है क्योंकि यह परंपरागत रूप से भारत और श्रीलंका के मछुआरों के लिए मछली पकड़ने का स्थान रहा है।
इस द्वीप पर एक चर्च भी स्थित है – सेंट एंथनी चर्च – जहां हर साल दोनों देशों के मछुआरे एक धार्मिक उत्सव में भाग लेते हैं।
🔷 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: भारत का हिस्सा कैसे बना?
ब्रिटिश शासन के दौरान कच्चतीवू भारत के मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा माना जाता था। 1921 में ब्रिटिश शासन ने एक रिपोर्ट में इसे भारतीय क्षेत्र के अंतर्गत माना था। भारत की स्वतंत्रता के बाद भी इसे तमिलनाडु के तहत देखा जाता था।
हालांकि, द्वीप पर मालिकाना हक को लेकर भारत और श्रीलंका के बीच कोई स्पष्ट समझौता नहीं था।
🔷 1974 का कच्चतीवू समझौता: कांग्रेस सरकार की भूमिका
1974 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने श्रीलंका के साथ एक समझौता किया जिसे “भारत-श्रीलंका समुद्री सीमाओं का समझौता” कहा गया। इस समझौते के तहत भारत ने कच्चतीवू द्वीप को औपचारिक रूप से श्रीलंका को सौंप दिया।
भारत सरकार ने दावा किया कि यह द्वीप कभी भी भारत का कानूनी हिस्सा नहीं था, इसलिए इसे सौंपने के लिए संसद की मंजूरी या संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता नहीं थी।
लेकिन यह तर्क आज भी विवाद का विषय है। तमिलनाडु के कई नेता और विशेषज्ञ इसे भारत के क्षेत्रीय अधिकार का हनन मानते हैं।
🔷 1976 का समझौता: मछुआरों पर और चोट
1974 के बाद, 1976 में एक और समझौता हुआ जिसमें यह तय किया गया कि दोनों देशों के मछुआरे केवल अपने-अपने क्षेत्र में ही मछली पकड़ेंगे। इससे भारतीय मछुआरों को कच्चतीवू और उसके आसपास मछली पकड़ने से रोक दिया गया।
तमिलनाडु के मछुआरों के लिए यह एक बड़ा झटका था क्योंकि उनकी आजीविका का एक बड़ा हिस्सा इसी क्षेत्र से जुड़ा था।
🔷 तमिलनाडु की राजनीति में कच्चतीवू
कच्चतीवू का मुद्दा तमिलनाडु की राजनीति में दशकों से एक बड़ा चुनावी और भावनात्मक मुद्दा रहा है। AIADMK, DMK, और BJP जैसी पार्टियां इस मुद्दे पर लगातार केंद्र सरकार से जवाब मांगती रही हैं।
जयललिता, एम. करुणानिधि, और अब एम.के. स्टालिन जैसे नेताओं ने समय-समय पर भारत सरकार से द्वीप को वापस लेने की मांग की है।
🔷 सुप्रीम कोर्ट में मामला
2011 में सुब्रमण्यम स्वामी और तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता ने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में उठाया। उनका तर्क था कि कच्चतीवू को सौंपना भारत की संप्रभुता का उल्लंघन है और इसके लिए संसद की मंजूरी आवश्यक थी।
यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। हाल ही में कोर्ट ने केंद्र सरकार से इस पर जवाब भी मांगा है।
🔷 मोदी सरकार और जयशंकर का बयान
2024 के लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कच्चतीवू मुद्दे को लेकर कांग्रेस पर जोरदार हमला बोला। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने चुपचाप भारत का एक हिस्सा श्रीलंका को सौंप दिया और आज तक यह मुद्दा भारतीय मछुआरों की पीड़ा का कारण बना हुआ है।
विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर यह दावा किया कि नेहरू जी ने पहले ही कह दिया था कि कच्चतीवू का कोई मूल्य नहीं है और अगर जरूरत पड़ी तो इसे छोड़ भी सकते हैं।
इस बयान के बाद यह मुद्दा फिर से गरमा गया है।
🔷 नेहरू और इंदिरा गांधी की भूमिका
1950 के दशक में जब कच्चतीवू को लेकर विवाद शुरू हुआ था, तब पंडित नेहरू ने संसद में कहा था कि यह द्वीप बहुत छोटा है और इसका कोई रणनीतिक या आर्थिक महत्व नहीं है।
इसी सोच के तहत इंदिरा गांधी की सरकार ने 1974 में बिना संसद से चर्चा किए इसे श्रीलंका को सौंप दिया।
लेकिन इस "छोटे समझौते" ने वर्षों तक तमिलनाडु के मछुआरों को संकट में डाल दिया और आज भी वह संकट बना हुआ है।
🔷 वर्तमान स्थिति
आज भी श्रीलंका की नौसेना द्वारा भारतीय मछुआरों को कच्चतीवू क्षेत्र में मछली पकड़ने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है। कई बार मछुआरों की नौकाएं जब्त कर ली जाती हैं।
हाल ही में यह मुद्दा इसलिए भी चर्चा में है क्योंकि भारत सरकार RTI और पुराने दस्तावेज़ों के माध्यम से इस समझौते की पारदर्शिता पर सवाल उठा रही है।
कच्चतीवू कोई सामान्य द्वीप नहीं है, यह भारत की क्षेत्रीय अखंडता, तमिलनाडु के मछुआरों की आजीविका, और कांग्रेस तथा भाजपा की वैचारिक टकराव का प्रतीक बन चुका है।
जहां एक ओर कांग्रेस इसे एक कूटनीतिक निर्णय बताती है, वहीं भाजपा इसे ऐतिहासिक भूल और देशहित के विरुद्ध निर्णय मानती है।
अब देखना यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट कोई ठोस निर्णय देगा, और क्या भारत सरकार कोई ऐसा रास्ता निकाल पाएगी जिससे मछुआरों को राहत मिले और भारत की संप्रभुता की रक्षा हो सके।