अंग जनपद जहां शिला खंडों पर साकार हैं गणपति 

Ang district where Ganapati is incarnate on stone blocks
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(शिवशंकर सिंह पारिजात-विभूति फीचर्स) बिहार राज्य का भागलपुर जिला ही प्राचीन अंगदेश कहलाता था। सुप्रसिद्ध सोलह महाजनपदों में से एक अंग जनपद भी था। महारथी सूर्यपुत्र कर्ण यहां के शासक थे। यह क्षेत्र ऐतिहसिक सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और पुरातात्त्विक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है।

अंगभूमि का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत था और इसके अन्तर्गत भागलपुर प्रमंडल के भागलपुर और बांका जिलों के अतिरिक्त पुराने भागलपुर प्रमंडल के मुंगेर एवं संताल परगणा प्रमंडल (वर्तमान झारखंड में) के आस-पास के इलाके भी आते हैं।'अथर्ववेद' में चर्चित समृद्ध इतिहास वाला अंगदेश प्राचीन काल में सोलह महाजनपदों में शामिल था। देश के प्राय: सभी प्रमुख इतिहासकारों ने भागलपुर जिले की पहचान अंगभूमि के रूप में की है, जिसमें मुंगेर सहित संताल परगना (झारखंड) के कुछ क्षेत्र शामिल थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार अंग की राजधानी चम्पा जम्बूद्वीप के प्राचीनतम नगरों में से एक है। विभिन्न धर्माें की समन्वयस्थली अंगभूमि शिवमय है, जिसके साक्ष्य हमें यहां के शैव-स्थलों तथा पुरातात्विक धरोहरों से बरबस मिल जाते हैं।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार अंग का तो नामकरण ही शिव-प्रसंग से जुड़ा है। कहते हैं जब कामदेव ने शिव का ध्यान भंग कर दिया, तो शिव ने क्रोधित होकर अपना ‘त्रिनेत्र’ खोल दिया जिसकी ज्वाला से बचने के लिये कामदेव भाग खडे़ हुए। किंतु अंततः कामदेव को अपना शरीर त्याग करना ही पड़ा। जिस स्थान पर शिव के त्रिनेत्र की ज्वाला से कामदेव ने भस्मीभूत होकर अपने शरीर को त्यागा, वह स्थान कामदेव को भगवान शिव के द्वारा दिये गये वरदान से ‘अंग’ के नाम से कालान्तर में विख्यात हुआ। रामायण के बालकांड में वर्णित है-

अनंग इति विख्यातस्तदा प्रभृति राघव। स चांगविषयं श्रीमान्यत्रांग समुमोच ह।। इस तरह अंग-भूमि का नामाकरण ही शिव के प्रसंग से जुड़ा है तो जाहिर है कि यहां के कंकर-कंकर में शंकर वास होगा ही, जिसके साक्ष्य हैं यहां के अनगिनत शिलाखंडों पर उत्कीर्ण भगवान शंकर और उमा-महेश्वर की मूर्तियां। फिर जब शिव हैं तो शिव-पुत्र गणपति की चर्चा होगी ही। यही कारण है कि अंग भूमि के शिलाखंडों पर शिव-पार्वती के साथ-साथ गणपति की प्रतिमाएं भी साकार हैं। मंगलकर्ता गणेश को विध्नविनाशक, सिद्धि दाता, चिंता-हरण और एकदंत कहकर भी संबोधित किया जाता है। हिन्दू धर्म के पंच देवताओं में विष्णु, शिव, सूर्य और शक्ति दुर्गा के पश्चात् गणेश को ही प्रमुख स्थान प्राप्त है। किसी भी देवता की पूजा के पूर्व सर्व-प्रथम विघ्नहर्ता गणेश की ही वंदना की जाती है। अंगभूमि की प्राचीन गणेश प्रतिमाओं की चर्चा बड़ा ही रोचक विषय है। इस क्रम में सबसे पहले चर्चा भागलपुर जिला के कहलगांव स्थित अंतीचक में विक्रमशिला बौद्ध महाविहार के उत्खनन से प्राप्त बौद्ध एवं सनातन धर्म से संबंधित मूर्तियों की।

आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पालवंशीय शासक धर्मपाल द्वारा स्थापित विक्रमशिला बौद्ध-महाविहार तन्त्रशास्त्र का एक महा केन्द्र था। अतः इसकी खुदाई में बौद्ध धर्म की मूर्तियों के साथ-साथ सनातन धर्म की मूर्तियों का प्राप्त होना तत्कालीन धार्मिक सहिष्णुता एवं समन्वय का प्रतीक प्रतीत होता है। विक्रमशिला के उत्खनन से प्राप्त प्रमुख  मूर्तियों में भैरव, उमा-महेश्वर, सद्योजात, महिषासुर मर्दिनी के साथ गणेश की मूर्तियां शामिल हैं।

विक्रमशिला से प्राप्त गणेश की सबसे उत्कृष्ट मूर्तियों में एक है दो कमल पंखुरियों के आसन पर बैठी हुई मुद्रा में उनकी सम्पूर्ण चतुर्भुज प्रतिमा, जिसका बायां पैर मुड़ा हुआ है और दाहिना पैर नीचे लटका हुआ कमल पद्म पर टिका हुआ है। उनके ऊपरी दाहिने हाथ में सर्प तथा निचले दाहिने हाथ में अक्षमाल एवं ऊपरी बायें हाथ में परशु तथा नीचे वाले हाथ में मोदक (लड्डू) है जिसे वे अपनी सूंढ़ से उठा रहे हैं। सूंढ़ का अग्रभाग अंशतः क्षतिग्रस्त है। मूर्ति के पीछे ऊपर दोनों ओर उड़ते हुए गन्धर्वों के बीच में एक पुष्प,संभवतः कमल अंकित है। यह मूर्ति करीब-करीब साबुत अर्थात पूर्ण अवस्था में है। गणेश रत्नजड़ित जटामुकुट के अतिरिक्त हार, कंगन और नुपुर धारण किये हुए हैं। काले पत्थर से निर्मित इस प्रतिमा के पैरों के पास मूषक  को बैठे दर्शाया गया है। गणपति की यह प्रतिमा अत्यंत मोहक है तथा पालकालीन मूर्तिकला का एक उत्कृष्ट नमूना प्रतीत होती है।


विक्रमशिला की खुदाई से प्राप्त गणेश की एक दूसरी महत्वपूर्ण प्रतिमा भी पूर्ण अवस्था में है जो दो पद्म-पुष्पों के आसन पर नृत्य-मुद्रा में खड़ी है। आसन के नीचे गणेश के वाहन मूषक अंकित हैं। इस प्रतिमा की भी चार भुजाएं हैं। इनकी ऊपरी दाहिनी भुजा में परशु और ऊपरी बायीं भुजा में अक्ष-माल है, तो निचली दाहिनी भुजा से वे एक चिल्ली पकड़े हुए हैं और निचली बायीं भुजा में लड्डू है। प्रतिमा के ऊपर हाथों में माला लिये उड़ते गन्धर्व अंकित हैं। काले पत्थर से निर्मित इस मूर्ति के आसन के नीचे दाहिनी ओर हाथ जोड़े हुए एक भक्त को दर्शाया गया है।


विक्रमशिला से मिली गणेश की एक अन्य मूर्ति काले पत्थर से निर्मित चार भुजाओंवाली है। जो एक आसन पर बैठी हुई मुद्रा में है। इस प्रतिमा के दोनों  पैर मुड़े हुए हैं साथ ही दाहिना पैर  ऊपर की ओर उठा हुआ है। अपने निचले दाहिने हाथ से वे एक लड्डू पकडे़ हुए हैं जबकि ऊपरी दाहिने हाथ में एक स्वतंत्र है। उनके बायें निचले हाथ में लडडू से भरा एक पात्र है जिसे उनकी सूंड़ का अग्रभाग उठाने को प्रयत्नरत है। बायें  हाथ में अक्षमाल है। मुक्ता की लड़ियोंवाली हार पहने हुए इस प्रतिमा का ऊपरी बायां भाग अंशतः क्षतिग्रस्त स्थिति में है। इसी तरह यहां की खुदाई से एक सद्योजात की प्रतिमा मिली है जो  कटिहस्त के रूप में दर्शायी गई है तथा जिसका बायां हाथ पेट पर है और दाहिना हाथ कुछ धारण किये हुए है। ऊपरी भाग में टूटी हुई स्थिति में कार्तिकेय की छोटी सी मूर्ति है।

इस प्रतिमा की आधार चट्टान का भी ऊपरी भाग टूटा हुआ है। जिसके बारे में अनुमान लगाया जाता है कि इस भाग पर नवग्रह के साथ गणेश जी की मूर्ति अंकित होगी। इसके अलावा विक्रमशिला से प्राप्त एक अन्य प्रतिमा में बौद्ध देवी अपराजिता को रुष्ट मुद्रा में गणेश को पददलित करते हुए दिखाया गया है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के महानिदेशक, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘‘अंतीचक उत्खनन-2 (1971-1981)’’ की रिपोर्ट में वीएस वर्मा ने विक्रमशिला से प्राप्त अन्य पुरावशेषों के साथ उक्त गणेश प्रतिमाओं का जीवंत विवरण दिया है। इसके अलावा  डा. लाल बाबू सिंह, डा. रमण कुमार सिंह एवं डा. किरण सहाय सरीखे विद्वानों ने भी इस पर प्रकाश डाला है। यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि जैसे बौद्ध धर्म में इद्धि सिद्धि आदि दश शक्तियों की मान्यता है वैसे ही सनातन धर्म में अणिमा, लधिमा आदि आठ शक्तियों के विचार हैं।  आज बौद्ध धर्म की ‘ऋद्धि’ और सनातन धर्म की ‘सिद्धि’ दोनों एक रूप में मान्य हैं और प्रायः सभी हिंदू घरों में ऋद्धि-सिद्धि की पूजा कुलदेवता, गृहदेवता और धन-धान्यदाता के रूप में होती है।  


भागलपुर प्रमंडल अन्तर्गत बांका जिला के बौंसी में स्थित पौराणिक आख्यानों से जुड़े मंदार पर्वत  के बारे मान्यता है कि इसी से समुद्र-मंथन किया गया था। ‘विष्णु पुराण’ के अनुसार अमृत-मंथन में इसी मंदार पर्वत को ‘मथानी’ के रूप में प्रयुक्त किया गया था और बासुकीनाग की ‘नेती’ बनायी गयी थी जिसके कारण वैष्णव धर्मावलंबियों के लिये मंदार का विशेष महात्म्य है।  समुद्र मंथन से प्राप्त विष का पान कर भगवान शंकर यहीं ‘नीलकंठ’ कहलाये थे, इस कारण शैव मतावलंबियों के लिये भी यह स्थल आस्था का केन्द्र माना जाता है। मंदार पर्वत की चट्टानों  पर विष्णु, नरसिंह, महाकाली, सरस्वती आदि देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के साथ गणेश की भी प्रतिमा उत्कीर्ण है जो उत्तर गुप्तकालीन राजा आदित्यसेन द्वारा निर्मित बतायी जाती हैं। पुरातत्ववेत्ता डा. अजय कुमार सिन्हा ने मंदार की एक चट्टान पर उत्कीर्ण गणेश प्रतिमा का बड़ा ही जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया है।

यह गणेश प्रतिमा 36×71 सेमी.आकार की है जो एक आम्र-कुंज के नीचे पैर मोड़कर बैठी हुई मुद्रा में है। इस चर्तुभुजी मूर्ति के बायें ऊपरी हाथ में परशु है जबकि निचले बायें हाथ में एक मोदक-पत्र है। अपने ऊपरी दाहिने हाथ से वे बेंत पकड़े हुए हैं जबकि निचला दाहिना हाथ वरद-मुद्रा में है। गणेश मूर्तियों की खास विशेषता के अनुरूप यह प्रतिमा एक-दंत है किंतु यह कोई अलंकरण धारण किये हुए नहीं है। बायें पैर के पास एक भक्त बैठी हुई मुद्रा में है। गणेश बड़ी ही स्वाभाविक मुद्रा में अपनी सूंढ़ से मोदक-पात्र का स्पर्श करते नजर आते हैं। प्रतिमा के प्रस्तर-खंड के ऊपरी भाग में लटकते हुए आम के कारण पुरविदों ने इस प्रतिमा की तुलना बंगाल में पायी गयी गणेश प्रतिमाओं से करते हुए उनमें समानता दिखाई देने की चर्चा की है। इस प्रतिमा की गणना पूर्वी बिहार से प्राप्त प्रारंभिक गणेश मूर्तियों में होती है।

इसके अलावा मंदार से गणेश की अन्य दो विलक्षण प्रतिमाएं भी प्राप्त हुई हैं जो सम्प्रति भागलपुर संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही हैं। इनमें से एक प्रतिमा, जो खंडित अवस्था मेें है, संग्रहालय के मुख्य प्रवेश द्वार की दाहिनी ओर रखी हुई है। प्रत्येक आगंतुक का ध्यान अपनी ओर खींचनेवाली इस प्रतिमा की दाहिनी भुजा में अक्षय माला और कुठार के प्रतीक अंकित हैं, जबकि अन्य भुजायें खंडित अवस्था में हैं। इनके सिर पर मुकुट, गले में हार एवं यज्ञोपवित, कमर तथा बाहों में अलंकरण सज्जित है। दूसरी प्रतिमा शास्त्र के अनुरूप निर्मित मुुकुटधारी है और इसकी भुजा भी खंडित है। ये दोनों प्रतिमाएं 10 वीं शताब्दी की बतायी जाती हैं।

उत्तर वाहिनी गंगा तट पर स्थित भागलपुर का सुलतानगंज न सिर्फ बिहार का वरन् देश का एक महत्त्वपूर्ण शिवधाम है जहां से श्रावण मास में लाखों कावंरिया भक्त प्रतिदिन अपने कावंरों में गंगाजल भरकर करीब 110 किमी. की साधनायुक्त यात्रा पूरी कर इसे द्वादश ज्योर्तिलिंग बैद्यनाथ महादेव पर अर्पित करते हैं। सुलतानगंज की अजगैबी और मुरली पहाड़ियों पर प्राचीन शिल्प कला के दर्जनों उत्कृष्ट नमूने उत्कीर्ण हैं जिनमें प्रधानतः शिव-पार्वती, उमा-माहेश्वर, अर्धनारीश्वर, सहित गणेश की प्रतिमाएं हैं। अजगैबी पहाड़ की पहली चढ़ाई पर बायीं ओर स्थित एक मंदिर के अंदर विशाल शिलाखंड पर अंकित शिव-परिवार की प्रतिमा की गणना मूर्ति कला के एक उत्कृष्ट नमूने के रूप में पुराविदों द्वारा की जाती है जिसमें शिव, पार्वती और कार्तिकेय के साथ कलात्मक रूप से गणेश दर्शित हैं।

इसके अतिरिक्त भागलपुर जिले के अन्तर्गत स्थित अन्य महावपूर्ण शिवधाम-बटेश्वर स्थान (कहलगांव), खेरी पहाड़ी (शाहकुंड), बूढ़नाथ मंदिर (भागलपुर), मनसकामनानाथ (नाथनगर) आदि स्थानों में भी गणेश की प्रतिमाएं बिखरी पड़ी हैं जिनमें से अधिकांश उचित देख-रेख के अभाव में विलीन होने के कगार पर हैं।(

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