अश्वत्थामा: महाभारत का अमर योद्धा और नर्मदा तट की रहस्यमयी कथा

Ashwatthama: The immortal warrior of the Mahabharata and the mysterious tale of the Narmada riverbank.
 
अश्वत्थामा: महाभारत का अमर योद्धा और नर्मदा तट की रहस्यमयी कथा

भारतीय पौराणिक परंपरा में अश्वत्थामा का नाम उन आठ महान व्यक्तियों में लिया जाता है जिन्हें अष्ट चिरंजीवी कहा जाता है। ये वे दिव्य आत्माएं हैं जिन्हें मृत्यु का भय नहीं—जो युगों से इस पृथ्वी पर विद्यमान हैं।अश्वत्थामा के साथ जिन अन्य चिरंजीवियों का उल्लेख मिलता है, वे हैं—हनुमान, राजा बलि, महर्षि वेदव्यास, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और ऋषि मार्कण्डेय।

अश्वत्थामा, महाभारत के महान योद्धा और कौरव-पांडवों के गुरु आचार्य द्रोणाचार्य के पुत्र थे। वे अद्वितीय युद्धकौशल, दिव्य अस्त्र-शस्त्रों और अपार सामर्थ्य के लिए जाने जाते थे। किंतु युद्ध के पश्चात मिला उनका जीवन—एक अंतहीन तपस्या, पीड़ा और रहस्य का पर्याय बन गया।

नर्मदा परिक्रमा और अमर योद्धा से साक्षात्कार

कहा जाता है कि नर्मदा परिक्रमा के दौरान गुरुदेव को महाभारत के इसी अमर पात्र—अश्वत्थामा—के साथ लगभग छः महीने तक रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। नर्मदा तट सदियों से शिव, ऋषियों और तपस्वियों की अलौकिक कथाओं का साक्षी रहा है।

परिक्रमा के क्रम में गुरुदेव सुल्पान क्षेत्र के घने जंगलों में प्रविष्ट हुए, जहाँ भील जातियों का वास था। यह क्षेत्र अत्यंत दुर्गम और भयावह माना जाता था। कहा जाता है कि यहाँ परिक्रमा करने वाले साधु-संतों को भी लूट लिया जाता था। जंगल में प्रवेश करते ही सैकड़ों भीलों ने गुरुदेव को घेर लिया। उनके हाथों में धनुष, तीर और भाले थे। वे गुरुदेव को अपने साथ ले गए।

भील समाज की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति और आस्था थी। वे शिव को अपना आराध्य मानते थे और अपने मुखिया के आदेश को ईश्वर का आदेश समझते थे। गुरुदेव ने उनके साथ समय बिताया, उनके जीवन-व्यवहार और परंपराओं को निकट से जाना।

]पीत वस्त्रधारी रहस्यमय पुरुष

उन्हीं दिनों गुरुदेव की दृष्टि एक विशेष व्यक्ति पर बार-बार जाती थी। वह प्रतिदिन आता, किंतु कभी संवाद नहीं करता। उसकी आँखों में अद्भुत तेज था। कद असाधारण रूप से ऊँचा, शरीर सुदृढ़, और वस्त्र सदैव पीले रंग के होते। वह भीलों जैसा दिखता था, पर साधारण नहीं लगता था।एक दिन सुल्पानेश्वर महादेव मंदिर में गुरुदेव की दृष्टि उस पुरुष पर ठहर गई। उसकी खड़ी मूँछें, बड़ी-बड़ी आँखें और शांत, स्थिर स्वभाव उसे दिव्य बना रहे थे। सिर पर पीली पगड़ी थी और सम्पूर्ण व्यक्तित्व में एक अलौकिक गरिमा।

जब गुरुदेव उनके निकट पहुँचे और चरणों में गिर पड़े, तो उन्होंने विनम्र भाव से कहा—“आप जो भी हैं, मुझे आपका परिचय चाहिए। आपका तेज और आपका व्यक्तित्व कह रहा है कि आप इस युग के साधारण पुरुष नहीं हैं।”उस पुरुष ने गुरुदेव को अपनी बाहों में उठाकर स्नेहपूर्वक चूम लिया—मानो पिता पुत्र को आलिंगन में भर ले। वह भीलों के लिए अत्यंत पूज्य था, शिव के साथ-साथ उसकी भी आराधना की जाती थी।“वत्स! मैं अश्वत्थामा हूँ…”

उस महापुरुष ने कहा—“वत्स, मैं अश्वत्थामा हूँ। आचार्य द्रोणाचार्य का पुत्र। महाभारत का योद्धा। यह सुल्पानेश्वर महादेव ही मेरा निवास है और ये भील मेरे सहचर। कभी-कभी कृपाचार्य और विदुर से मिलने हिमालय चला जाता हूँ। गोरखनाथ से भी यदा-कदा भेंट हो जाती है।”उन्होंने बताया कि मणि निकलने के बाद उनकी युद्ध शक्ति, ऐश्वर्य और दिव्य कलाएँ समाप्त हो चुकी हैं, किंतु अमरता का वरदान उनसे कोई नहीं छीन सका—न पांडव, न श्रीकृष्ण। उनके ललाट पर गहरे घाव का निशान था, जो समय के साथ भरा नहीं।

छह माह की संगति और रहस्यमय विदा

गुरुदेव ने उस युगांतर पुरुष के साथ छह महीने बिताए। वे कभी लंबी यात्राओं पर निकल जाते, कभी नगरों में साधारण मनुष्य की तरह विचरण करते। वह अमर योद्धा आज के संसार को देखता—और मनुष्यों की चेतना पर मौन प्रश्नचिह्न छोड़ देता। एक दिन, उस महापुरुष ने गुरुदेव के मस्तक को चूमा, आशीर्वाद स्वरूप हाथ रखा—और फिर अदृश्य हो गया।आज भी कहा जाता है कि नर्मदा तट और सुल्पानेश्वर क्षेत्र उस अमर योद्धा की तपस्या और उपस्थिति के साक्षी हैं। अश्वत्थामा केवल एक पौराणिक पात्र नहीं, बल्कि समय के पार खड़ा एक जीवंत रहस्य हैं।

Tags