Baba Vasukinath : भक्तों के फौजदारी मामलों की सुनवाई करते हैं बाबा वासुकिनाथ

Baba Vasukinath : Baba Vasukinath hears the criminal cases of his devotees
 
Baba Vasukinath hears the criminal cases of his devotees
(कुमार कृष्णन - विनायक फीचर्स) श्रावण माह भगवान शिव को समर्पित है। भगवान शिव तो ‘संहारक’ है, सृजन कर्ता और ‘नव निर्माण कर्ता’ भी है। ‘शिव’ अर्थात कल्याणकारी, सर्वसिद्धिदायक, सर्वश्रेयस्कर ‘कल्याणस्वरूप’ और ‘कल्याणप्रदाता’ है। जो हमेशा योगमुद्रा में विराजमान रहते है और हमें जीवन में योगस्थ, जीवंत और जागृत रहने की शिक्षा देते है।

भगवान शिव ने  विष को अपने कंठ में धारण किया

पुराणों में उल्लेख है कि समुद्र मंथन के दौरान निकले विष के विनाशकारी प्रभावों से इस धरा को सुरक्षित रखने के लिये भगवान शिव ने उस हलाहल विष को अपने कंठ में धारण किया और पूरी पृथ्वी को विषाक्त होने से,प्रदूषित होने से बचा लिया। भगवान शिव ने विष शमन करने के लिये अपने सिर पर अर्धचंद्राकार चंद्रमा को धारण किया तथा सभी देवताओं ने माँ गंगा का पवित्र जल उनके मस्तक पर डाला ताकि उनका शरीर शीतल रहे तथा विष की उष्णता कम हो जाये। चूंकि ये घटना श्रावण मास के दौरान हुई थीं, इसलिए श्रावण में शिवजी को माँ गंगा का पवित्र जल अर्पित कर शिवाभिषेक किया जाता है, कांवड यात्रा इसी का प्रतीक है। शिवाभिषेक से तात्पर्य दिव्यता को आत्मसात कर आत्मा को प्रकाशित करना है। प्रतीकात्मक रूप से शिवलिंग पर पवित्र जल अर्पित करने का उद्देश्य है कि हमारे अन्दर की और वातावरण की नकारात्मकता दूर हो तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सकारात्मकता का समावेश हो।  

आकर नागेश ज्योर्तिलिंग के नाम से विख्यात बाबा वासुकिनाथ की आराधना करते हैं


तीर्थ नगरी देवधर स्थित द्वादश ज्योर्तिलिंग बाबा वैद्यनाथ और सुलतानगंज की उत्तर वाहिनी गंगा तट पर स्थित बाबा अजगैबीनाथ के साथ दुमका जिले में सुरभ्य वातावरण में स्थित बाबा वासुकिनाथ धाम की गणना बिहार और झारखंड ही नहीं, वरन् राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुख शैव-स्थल के रूप में होती है। देवघर-दुमका मुख्य मार्ग पर स्थित इस पावन धाम में श्रावणी- मेले के दौरान केसरिया वस्त्रधारी कांवरिया तीर्थयात्रियों की खास चहल-पहल रहती हैं। ऐसी मान्यता है कि वासुकिनाथ की पूजा के बिना बाबा वैद्यनाथ की पूजा अधुरी है। यही कारण है कि भक्तगण बाबा बैद्यनाथ की पूजा के साथ साथ यहां आकर नागेश ज्योर्तिलिंग के नाम से विख्यात बाबा वासुकिनाथ की आराधना करते हैं। सावन के महीने में तो हजारों, लाखों भक्तगण सुलतानगंज-अजगैबीनाथ से उत्तरवाहिनी गंगा का पवित्र जल अपने कांवड़ों में भरते हैं। फिर एक सौ किलोमीटर से भी अधिक पहाड़ी जंगली रास्ते पैदल पारकर इसे देवघर में वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाते हैं। इसके बाद वे वासुकिनाथ आकर नागेश ज्योतिर्लिंग पर जल-अर्पण करते हैं। भगवान शिव औघड़दानी कहलाते हैं। भक्तों की भक्ति से प्रसन्न होकर तुरंत वरदान देनेवाले।

भगवान शंकर की दीवानी अदालत है, वही वासुकिनाथ धाम उनकी फौजदारी अदालत है

तभी तो शिवभक्तों की नजरों में यहां भगवान शंकर की अदालत लगती है। शिव-भक्त मानते हैं कि जहां (वैद्यनाथ धाम) भगवान शंकर की दीवानी अदालत है, वही वासुकिनाथ धाम उनकी फौजदारी अदालत है। बाबा वासुकिनाथ के दरबार में मांगी गयी मुरादों की तुरंत सुनवाई होती है। यही कारण है कि साल के बारहों महीने यहां देश के कोने-कोने से भक्तों का आवागमन जारी रहता है।प्राचीन काल में वासुकिनाथ घने जंगलों से घिरा था। उन दिनों यह क्षेत्र दारूक-वन कहलाता था। पौराणिक कथा के अनुसार इसी दारुक वन में द्वादश ज्योतिर्लिंग स्वरूप नागेश्वर ज्योतिर्लिंग का निवास था। शिव पुराण में वर्णित है कि दारूक-वन दारूक नाम के असुर के अधीन था। कहते हैं, इसी दारूक-वनके नाम पर संताल परगना प्रमंडल के मुख्यालय दुमका का नाम पड़ा है।

वासु नाम का एक व्यक्ति कंद की खोज में भूमि खोद रहा

 वासुकिनाथ शिवलिंग के आविर्भाव की कथा अत्यंत निराली है। एक बार की बात है- वासु नाम का एक व्यक्ति कंद की खोज में भूमि खोद रहा था। उसके शस्त्र से शिवलिंग पर चोट पड़ी। बस क्या था- उससे रक्त की धार बह चली। यह दृश्य देखकर भयभीत हो गया। उसी क्षण भगवान शंकर ने उसे आकाशवाणी के द्वारा धीरज दिया कि डरो मत, यहां मेरा निवास है। भगवान भोलेनाथ की वाणी सुन श्रद्धा-भक्ति से अभिभूत हो गया और उसी समय से उस लिंग की मूर्ति-पूजन करने लगा। वासु द्वारा पूजित होने के कारण उनका नाम वासुकिनाथ पड़ गया। उसी समय से यहां शिव-पूजन की जो परम्परा शुरू हुई, वो आज तक विद्यमान है। आज यहां भगवान भोले शंकर और माता पार्वती का विशाल मंदिर है। मुख्य मंदिर के बगल में शिव गंगा है जहां भक्तगण स्नान कर अपने आराध्य को बेल-पत्र, पुष्प और गंगाजल समर्पित करते हैं तथा अपने कष्ट क्लेशों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं।

हिंदुओं के कई ग्रंथों में सागर मंथन का वर्णन किया गया

यह माना जाता है कि वर्तमान दृश्य मंदिर की स्थापना 16वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में हुई। हिंदुओं के कई ग्रंथों में सागर मंथन का वर्णन किया गया है, जब देवताओं और असुरों ने मिलकर सागर मंथन किया था। वासुकिनाथ मंदिर का इतिहास भी सागर मंथन से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि सागर मंथन के दौरान पर्वत को मथने के लिए वासुकी नाग को माध्यम बनाया गया था। इन्हीं वासुकी नाग ने इस स्थान पर भगवान शिव की पूजा अर्चना की थी। यही कारण है कि यहाँ विराजमान भगवान शिव को वासुकिनाथ कहा जाता हैइसके अलावा मंदिर के विषय में एक स्थानीय मान्यता भी है। कहा जाता है कि यह स्थान कभी एक हरे-भरे वन क्षेत्र से आच्छादित था जिसे दारुक वन कहा जाता था। कुछ समय के बाद यहाँ मनुष्य बस गए जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दारुक वन पर निर्भर थे। ये मनुष्य कंदमूल की तलाश में वन क्षेत्र में आया करते थे। इसी क्रम में एक बार बासुकी नाम का एक व्यक्ति भी भोजन की तलाश में जंगल आया। उसने कंदमूल प्राप्त करने के लिए जमीन को खोदना शुरू किया। तभी अचानक एक स्थान से खून बहने लगा। वासुकी घबराकर वहाँ से जाने लगा तब आकाशवाणी हुई और वासुकी को यह आदेशित किया गया कि वह उस स्थान पर भगवान शिव की पूजा अर्चना प्रारंभ करे। वासुकी ने जमीन से प्रकट हुए

भगवान शिव के प्रतीक शिवलिंग की पूजा अर्चना प्रारंभ कर दी

भगवान शिव के प्रतीक शिवलिंग की पूजा अर्चना प्रारंभ कर दी, तब से यहाँ स्थित भगवान शिव वासुकिनाथ कहलाए। वासुकिनाथ झारखंड के दुमका जिले में स्थित है। यह देवघर दुमका राज्य राजमार्ग पर स्थित है और दुमका के उत्तर-पश्चिम में लगभग 25 किमी दूर है। वासुकिनाथ धाम में शिव और पार्वती मंदिर एक दूसरे के ठीक सामने हैं। शाम को जब दोनों मंदिरों के द्वार खोले जाते हैं तो भक्तों को द्वार के सामने से दूर जाने का सुझाव दिया जाता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि इस समय भगवान शिव और माता पार्वती एक दूसरे से मिलते हैं। वासुकिनाथ सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है। इसी परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं के कई अन्य छोटे मंदिर भी हैं।

देवों के देव महादेव कहलाये 

भगवान भोले शंकर की महिमा अपरम्पार है। वे देवों के देव महादेव कहलाते हैं। वे  व्याघ्र चर्म धारण करते हैं, नंदी की सवारी करते हैं, शरीर में भभूत लगाते हैं, श्माशान में वास करते हैं, फिर भी औघड़दानी कहलाते हैं। दिल से जो कुछ भी मांगों, बाबा जरूर देगे। जैसे भगवान भोले शंकर, वैसे उनके भक्तगण! बाबा हैं कि उन्हें किसी प्रकार के साज-बाज से कोई मतलब नहीं, और भक्त हैं कि दुनिया के सारे आभूषण और अलंकार उनपर न्यौछावर करने के लिये तत्पर! अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिये! भक्त और भगवान की यह ठिठोली ही तो भारतीय धर्म और संस्कृति का वैशिष्ट्य है। श्रावण मास में शिव पूजन के अलावा यहां की महाश्रृंगारी भी अनुपम है। कहते हैं कि कलियुग में वसुधैव कुटुम्बकम तथा सर्वे भवंतु सुखिन: जैसी उक्तियों को प्रतिपादित करने के लिये शिव की उपासना से बढक़र अन्य कोई मार्ग नहीं हैं! और, शिव की उपासना की सर्वोत्तम विधि है :

महाश्रृंगार के दिन वासुकिनाथ की शिव-नगरी नयी-नवेली दुलहन की तरह सज उठती है

महाश्रृंगार  का आयोजन गंगाजल घी, दूध दही, बेलपत्र आदि शिव की प्रिय वस्तुओं को अर्पित कर उन्हें प्रसन्न करने का सबसे उत्तम उपाय। तभी तो साल के मांगलिक अवसरों पर भक्तगण बाबा वासुकिनाथ की महाश्रृंगारी और महामस्तकाभिषेक का आयोजन करते हैं। महाश्रृंगार के दिन वासुकिनाथ की शिव-नगरी नयी-नवेली दुलहन की तरह सज उठती है-मानों स्वर्ग पृथ्वी पर उतर आया हो। लगता है देव -लोक के सभी देवी— देवता पृथ्वी-लोक पर अवतरित हो गये हैं- भगवान भूतनाथ की रूप-सज्जा देखने के लिये। आये भी क्यों नहीं। देवों के देव महादेव की महाश्रृंगारी जो है।

आखिर जगत के स्वामी के महाश्रृंगार की जो बात है

शिव का स्वरूप विराट् है। किंतु इनकी आराधना अत्यंत सरल भी है और कठिन भी। इनकी महाश्रृंगारी तो और भी कठिन। आखिर जगत के स्वामी के महाश्रृंगार की जो बात है। इस हेतु साधन जुटायें भी तो कैसे। पर, भगवान की लीला की तरह भक्तों की भक्ति भी न्यारी होती है। शिव की आराधना में उनके श्रृंगार हेतु भक्त मानों अपनी सारी निष्ठा ही लगा देते हैं। और, शिव की स्रष्टि की श्रेष्टतम् सामग्रियां लाकर शिव को ही समर्पित करतें हैं।श्रावण माह प्रकृति और पर्यावरण की समृद्धि, नैसर्गिक सौन्द्रर्य के संवर्धन और संतुलित जीवन का संदेश देता है। नैसर्गिक सौंदर्य के संवर्धन के लिये शिवाभिषेक के साथ धराभिषेक; धरती अभिषेक नितांत आवश्यक है। वास्तव में देखे तो श्रावण मास प्रकृति को सुनने, समझने और प्रकृतिमय जीवन जीने का संदेश देता है।

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