गुप्त नवरात्र विशेष: सिद्धपीठ तारापीठ — माँ तारा और बामा खेपा की अद्भुत आराधना का केंद्र
Gupt Navratri Special: Siddhapeeth Tarapeeth - The center of amazing worship of Mother Tara and Bama Khepa
Fri, 27 Jun 2025

लेखक: शिव शंकर सिंह पारिजात (विनायक फीचर्स)
(पूर्व उपनिदेशक, जनसंपर्क विभाग एवं इतिहासकार)
भारत में शक्ति की उपासना की परंपरा अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है। देवी की दस महाविद्याओं में माँ तारा का स्थान विशेष है, जिन्हें करुणामयी, कल्याणकारी और भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली देवी माना गया है। पश्चिम बंगाल के बीरभूम ज़िले में स्थित तारापीठ को माँ तारा का प्रमुख सिद्धपीठ माना जाता है, जो रामपुरहाट स्टेशन से लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर द्वारका नदी के तट पर स्थित है।
तारा माँ: करुणा और सिद्धि की देवी
माँ तारा को 'नील सरस्वती', 'एकजटा भवानी' और 'तारा तारिणी' जैसे नामों से जाना जाता है। इनका स्वरूप नील वर्ण का होता है, जिसमें वे तलवार, खप्पर, कटार और नीलकमल धारण किए रहती हैं। माँ तारा को भक्त-वत्सला माना जाता है — वे अपने उपासकों की हर प्रकार की मनोकामना पूर्ण करती हैं। यही कारण है कि उनके साथ-साथ उनके अनन्य भक्त बामा खेपा की भी पूजा की जाती है, जो भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में एक दुर्लभ उदाहरण है।
तारापीठ: सिद्ध शक्ति पीठ
रामपुरहाट स्टेशन से लगभग 8 किलोमीटर दूर द्वारका नदी के किनारे स्थित तारापीठ को तंत्र साधना का प्रमुख केंद्र माना जाता है। शक्ति उपासना की बंगाली परंपरा में यह स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहाँ हर दिन बिहार, बंगाल, झारखंड और देश के अन्य हिस्सों से हजारों श्रद्धालु दर्शन-पूजन के लिए आते हैं।
ऐसी मान्यता है कि दक्ष यज्ञ के समय देवी सती की देह का “नेत्र तारा” इसी स्थान पर गिरा था। इसी से इस स्थल का नाम 'तारापीठ' पड़ा। यह स्थान 51 शक्ति पीठों में से एक माना जाता है।
ऋषि वशिष्ठ और माँ तारा की तपोभूमि
पुराणों के अनुसार, वशिष्ठ मुनि ने तारापीठ के समीप स्थित श्मशान भूमि में देवी तारा की घोर तपस्या की थी। 'कालिका पुराण' में उल्लेख है कि देवताओं की पुकार पर माता कौशिकी के साथ प्रकट हुईं उग्रतारा ने संसार की रक्षा की थी। वशिष्ठ की तपस्या से प्रसन्न होकर माँ ने उन्हें भगवान शिव को दुग्धपान कराते हुए मातृरूप में दर्शन दिए। इसके पश्चात देवी एक शिला रूप में परिवर्तित हो गईं, जिसे वर्तमान मुख्य मंदिर में स्थापित किया गया है। इस प्रतिमा पर चांदी का मुखमंडल चढ़ाया गया है, जिसकी रात्रि में विशेष दर्शन होते हैं
तंत्र साधना और बौद्ध परंपरा में तारा
तारापीठ न केवल हिंदू श्रद्धालुओं के लिए, बल्कि तांत्रिक साधकों और बौद्ध परंपराओं में भी अत्यंत पूज्य है। तिब्बती बौद्ध धर्म में माँ तारा को 'आर्यतारा' के रूप में जाना जाता है — जो महायान परंपरा में बोधिसत्व और वज्रयान में बुद्ध के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
बामा खेपा: माँ तारा के अटूट भक्त
माँ तारा की आराधना की चर्चा बामा खेपा के बिना अधूरी है। तारापीठ से 8 किलोमीटर दूर स्थित आटला गांव में जन्मे बामा खेपा, माँ तारा की भक्ति में इस कदर लीन हो गए कि वे संसार से कटकर श्मशान में साधना करने लगे। उनकी दिव्यता और अलौकिक भक्ति के कारण उन्हें 'खेपा' यानी 'माँ की भक्ति में पागल' कहा जाने लगा।
बामा खेपा ने माँ तारा को एक देवी नहीं, बल्कि अपनी माँ के रूप में देखा और उन्हीं के साथ पुत्रवत व्यवहार किया। मंदिर के पुजारी जब उन्हें कुपित होकर मंदिर से बाहर निकालते, तो वे श्मशान में माँ की रट लगाते रहते। एक दिन माँ ने रानी नाटोर को स्वप्न में आदेश दिया कि जब तक उसका पुत्र भूखा है, तब तक वह भोग स्वीकार नहीं करेगी। इसके बाद से यह परंपरा बनी कि माँ को भोग अर्पित करने से पहले बामा को भोजन कराया जाए।
भक्ति और तंत्र का अद्भुत संगम
तारापीठ में माँ तारा को जवा, कमल और नीले अपराजिता फूल चढ़ाना अति शुभ माना जाता है। श्रद्धालु पहले माँ को फूल अर्पित करते हैं, फिर बामा खेपा के मंदिर में जाकर पूजन करते हैं। विशेष रूप से शनिवार, रविवार और सोमवार के दिन दर्शन अत्यंत फलदायी माने जाते हैं।
श्रावण मास में, जब देशभर से कांवड़िए देवघर स्थित वैद्यनाथ धाम जल चढ़ाने जाते हैं, तो अनेक श्रद्धालु तारापीठ में भी माँ तारा के दर्शन कर पूजन करते हैं। इस प्रकार यह स्थल न केवल शक्ति साधना का केंद्र है, बल्कि भक्ति, तंत्र और करुणा की जीवंत मिसाल भी है।