चातुर्मास में भगवान विष्णु एवं महादेव शिव की उपासना का महत्व
Importance of worshiping Lord Vishnu and Mahadev Shiva in Chaturmas
Sat, 5 Jul 2025

(लेखिका: अंजनी सक्सेना – विभूति फीचर्स) चातुर्मास का काल—जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक होता है—हिंदू धर्म में अत्यंत पवित्र और पुण्यदायी माना गया है। यह चार महीने का विशेष काल अध्यात्म, भक्ति और साधना का समय होता है। स्कंद पुराण के अनुसार, जो भक्त इस अवधि में भगवान विष्णु या भगवान शिव—or दोनों—का मन, वचन और कर्म से स्मरण, ध्यान व आराधना करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। इस दौरान ईश्वर के प्रति निष्कलंक भक्ति करने वाला व्यक्ति अपने शत्रुओं तक को प्रिय बना लेता है।
चातुर्मास में पूजा का विशेष विधान
इस समय भगवान विष्णु की शालग्राम रूप में तथा महादेव की नर्मदेश्वर स्वरूप में पूजा करने की परंपरा है। कई भक्त हरिहर रूप—अर्थात शिव और विष्णु के संयुक्त स्वरूप—की भी आराधना करते हैं। चातुर्मास में नियमपूर्वक पूजा, व्रत और ध्यान करने से साधक को विशेष आध्यात्मिक लाभ मिलता है।
चातुर्मास और स्नान का महत्त्व
इस कालखंड में नदियों, सरोवरों और तीर्थस्थलों में स्नान को विशेष पुण्यकारी बताया गया है। स्कंद पुराण कहता है कि चातुर्मास में नदी स्नान करने से सिद्धि की प्राप्ति होती है और झरने, बावड़ी या तालाब में स्नान करने से हजारों पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं।
विशेष तीर्थ जैसे पुष्कर, प्रयाग, नर्मदा, गोदावरी और सरस्वती में स्नान करना अत्यंत पुण्यदायक माना गया है। नर्मदा नदी में केवल एक दिन का स्नान भी समस्त पापों का नाश कर देता है। जो श्रद्धालु गोदावरी में सूर्योदय के समय 15 दिनों तक स्नान करता है, उसे इस लोक में सुख और परलोक में वैकुंठ की प्राप्ति होती है।
यदि तीर्थ यात्रा संभव न हो तो व्यक्ति घर पर ही तिल, आंवला या बिल्व पत्र युक्त जल से स्नान कर पुण्य प्राप्त कर सकता है। बिना स्नान किए शुभ कर्म निष्फल हो जाते हैं और उनका फल असुरों को प्राप्त हो जाता है।
विष्णु पूजन की विशेष विधि
चातुर्मास में भगवान विष्णु की षोडशोपचार पूजा करने का महत्व अत्यधिक है। पुरुषसूक्त के 16 मंत्रों द्वारा श्रीहरि का आवाहन और पूजन किया जाता है। जैसे:
"सहस्रशीर्षा पुरुषः" से आवाहन,
"पुरुष एवेदम्" से आसन,
तीसरी से पाद्य, चौथी से अर्घ्य, और इसी क्रम में स्नान, वस्त्र, चंदन, पुष्प, धूप और दीप अर्पण किया जाता है।
कपूर, मिश्री, चंदनदल, मधु और जटामासी से युक्त अगरु की धूप तथा दीपदान विशेष फलदायक माना गया है। इसके बाद अन्न युक्त नैवेद्य, आरती, परिक्रमा और अंत में आत्म-समर्पण भाव से श्रीहरि से एकात्मता का चिंतन किया जाता है।
हरिहर स्वरूप की कथा
स्कंद पुराण में वर्णन है कि भगवान शिव एक बार भक्तों को दर्शन देने के लिए विष्णु और शिव के संयुक्त हरिहर रूप में प्रकट हुए थे। आधे शरीर में शिव के लक्षण और आधे में विष्णु के चिन्ह दृष्टिगोचर हुए। गरुड़ और नंदी दोनों ही उनके साथ विराजमान थे। यह रूप मंदराचल पर्वत पर प्रतिष्ठित हुआ। चातुर्मास में इस स्वरूप का स्मरण भी मोक्षदायक माना गया है।
माता पार्वती की चातुर्मास तपस्या
महादेव ने स्वयं माता पार्वती को चातुर्मास में "नमो भगवते वासुदेवाय" मंत्र जप करने की प्रेरणा दी। पार्वती जी हिमालय पर तपस्या हेतु गईं, और शिवजी पृथ्वी पर विचरण करते हुए यमुना स्नान को पहुंचे। वहां उन्होंने यमुना को वरदान दिया कि उनके जल में स्नान करने से हजारों पाप नष्ट हो जाएंगे।
इसके पश्चात मुनियों के श्राप से भगवान शिव लिंग रूप में अमरकंटक पर प्रकट हुए, जहां से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई। चातुर्मास में नर्मदा स्नान, नर्मदेश्वर लिंग का पूजन और तर्पण विशेष फलदायी माने गए हैं।
भगवान शिव की आराधना
चातुर्मास में रुद्राभिषेक, रुद्र मंत्र जाप, और पंचामृत से भगवान शिव को स्नान कराना विशेष पुण्यदायक माना गया है। जो व्यक्ति मधु (शहद) से अभिषेक करता है, उसके हजारों दुख समाप्त हो जाते हैं। दीपदान करने वाला शिवलोक को प्राप्त करता है।
नर्मदेश्वर महालिंग का विधिवत पूजन करने वाला भक्त अंततः शिवस्वरूप बन जाता है। स्वयं ऋषि गालव ने कहा है कि चातुर्मास में शालग्राम और नर्मदेश्वर की आराधना करने वाला भक्त श्रीहरि के धाम को प्राप्त करता है।