'तमसो मा ज्योतिर्गमय': दीपावली का पर्व—एक सांस्कृतिक यात्रा से बाह्य आडंबर तक

Tamaso Ma Jyotirgamay : The Festival of Diwali From a Cultural Journey to Outward Spectacle

 
'तमसो मा ज्योतिर्गमय': दीपावली का पर्व—एक सांस्कृतिक यात्रा से बाह्य आडंबर तक

(सुषमा जैन द्वारा एक वैचारिक प्रस्तुति)  उल्लास और समृद्धि का प्रतीक दीपावली, भारतीय संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है। वैदिक युग की ज्ञान ज्योति से शुरू हुई यह दीपों की परंपरा ऐतिहासिक अंधकारों को चीरती हुई आज़ादी के खुले आंगन तक पहुँच चुकी है। कार्तिक मास आते ही गाँव-शहर, गली-मोहल्ला, बूढ़े-बच्चे सबके चेहरे पर एक विशिष्ट चमक आ जाती है। नवरात्रि से शुरू हुआ यह हर्षोल्लास दीपावली पर अपने चरम पर होता है। हालांकि, युगों से जलते आ रहे दीपक और दीपावली के स्वरूप में काल-परिवेश के अनुसार अनेक परिवर्तन आए हैं। आज यह पर्व जिस तरह अपव्यय और दुर्घटनाओं का पर्याय बनता जा रहा है, वैसी स्थिति पहले कभी नहीं थी।

अतीत की दीपावली: सादगी और सामूहिक आनंद

लगभग 40-50 वर्ष पूर्व दीपावली की रौनक सादगी और सामूहिक उत्साह से भरी होती थी। उस समय धन के अपव्यय के साथ धूमधड़ाकों की दीपावली नहीं मनाई जाती थी। प्रसन्नता व्यक्त करने का ढंग निराला था:

  • चारों ओर झिलमिलाते दीपों की अनगिनत पंक्तियाँ।

  • रंग-बिरंगे परिधानों में सजी कुलवधुएं घर-आँगन को लीपती-पोतती थीं।

  • नव बालाएं और यौवनाएं कंदीलों और रंगोली की प्रतिस्पर्धा में संलग्न रहती थीं।

  • बच्चे, नवयुवक और वृद्ध—सभी सामूहिक रूप से प्रसन्नतापूर्वक इस दीपोत्सव का आनंद लेते थे।

वर्तमान का विरोधाभास: स्वार्थ, आडंबर और प्रदूषण

दीपावली पूजन का मूल उद्देश्य सुख-समृद्धि, खुशहाली, समरसता और ज्ञान का प्रकाश फैलाना था। कामना यह थी कि लक्ष्मी की कृपा हो और मानव समाज अधिक से अधिक धर्म-कर्म कर सके।

परंतु आज स्थिति बिल्कुल उलट गई है। लोग केवल अपनी स्वार्थपूर्ति तक सिमट गए हैं; दुनिया भर की सुख-सुविधाएँ जुटाना ही एकमात्र लक्ष्य बन गया है। इससे समाज में गैरबराबरी की खाई बढ़ रही है: एक ओर खुशियों के दीप जलते हैं, तो अधिकतर जगहों पर गम और अभावों का अंधेरा पसरा है।

  • अपव्यय और प्रदूषण: लोग मनोरंजन और हैसियत दिखाने के लिए करोड़ों रुपयों के पटाखे फूंक डालते हैं, जिससे असंख्य लोग वायु एवं ध्वनि प्रदूषण से पीड़ित होते हैं।

  • दिखावा और बजट: मिट्टी के दीयों का स्थान भारी मात्रा में बिजली की झालरों ने ले लिया है। खील-बताशों की जगह महंगे तोहफे दिए जा रहे हैं। पड़ोसियों से होड़ में लोग अनावश्यक वस्तुएं खरीदकर गृह बजट बिगाड़ लेते हैं—जो केवल व्यक्ति की औकात का घटिया प्रदर्शन मात्र है।

  • सामाजिक स्वीकृति: जुए को जैसे सामाजिक स्वीकृति मिल गई है।

क्रोधित लक्ष्मी और आंतरिक अंधकार

हम हर वर्ष माता लक्ष्मी की आराधना करते हैं, पर देवी प्रसन्न नहीं होतीं, बल्कि क्रोधित होती हैं। आखिर क्यों न हों, जब कहीं लक्ष्मी स्वरूप कुलवधू को दहेज की बलिदेवी पर कुर्बान किया जा रहा है, तो कहीं उसे जन्म लेने से पूर्व ही मौत के घाट उतारा जा रहा है।

आज बाहुबलियों और धनपशुओं का हाथ फैल रहा है, करुणा के लिए कोई स्थान नहीं बचा है। जीवन में उजाले की इच्छा हर कोई रखता है, पर इस उजाले की सार्थकता तभी है जब इसकी रौनक मन के अंदर और बाहर समान हो।

आज हम बाहर दीप जलाकर उजाला तो कर देते हैं, लेकिन हमारी आत्मा छल, कपट, राग, द्वेष, ईर्ष्या और वैचारिक कलुषता से भरी रहती है। जिस लक्ष्मी को हम सर्वोपरि मान बैठे हैं, वह तो तृष्णा (लोभ) है, और जब मन में तृष्णा जन्म ले लेती है, तो मन का अशांत होना आवश्यक हो जाता है।"

दीपावली की मूल प्रेरणा

दीपावली सांस्कृतिक चेतना का मापदंड और राष्ट्रीय एकता की साक्षी है।

  • जैन मान्यता: आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में पावापुर नगरी में भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था। उस अंधेरी रात में देवों ने रत्नों के दीपकों का प्रकाश कर निर्वाण उत्सव मनाया। कार्तिक अमावस्या को उनके प्रधान शिष्य इंद्रभूति गौतम को ज्ञान लक्ष्मी की प्राप्ति हुई, तभी से दीपावली का आयोजन होने लगा।

  • राम की वापसी: भगवान राम के अयोध्या आगमन पर स्वागत हेतु सजाई गई दीपमाला को भी दीपावली की परंपरा से जोड़ा जाता है।

चिंतन का विषय: दुर्भाग्य से, आज बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो तन से भारतीय हैं, पर मन से पूरे विदेशी। वे न अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान रखते हैं, न अपने उत्सवों के प्रति। इसी कारण हम सभी के अंतर में गहरा अंधकार भरा है। हम उस अंधकार को शत्रु मानकर भयभीत हो रहे हैं और बाहर के भौतिक प्रकाश की ओर भाग रहे हैं। यह बाह्य भौतिक प्रकाश उस प्रकाश तक कभी नहीं ले जा पाएगा, जिसका अर्थ "तमसो मा ज्योतिर्गमय" (अंधकार से मुझे प्रकाश की ओर ले चलो) वाक्य में छिपा है।

दीपावली मूल रूप से सहृदयता, आपसी भाईचारे और मिठास पैदा करने का पर्व है। यदि हम दरिद्रता के अंधकार में जीने वाले लोगों के घरों में, दिलों में प्रकाश की एक किरण भी जला पाएँ, तो दीपोत्सव का उद्देश्य सार्थक हो जाएगा। अंधेरे को क्यों धिक्कारें, अच्छा है कि एक दीप जला लें।"

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