क्या शिक्षक बच्चों की पढ़ाई के लिए चिंतित हैं या अपनी नौकरी बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं?
UP Teachers protest against school merger हाल ही में उत्तर प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों द्वारा सरकार के स्कूलों के विलय (merger of schools) के निर्णय के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन की लहर उठी है। यह आंदोलन कई जिलों में ज़ोर पकड़ चुका है और शिक्षक संगठनों ने इसे बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ बताया है। लेकिन सवाल यह है कि यह विरोध बच्चों की पढ़ाई के हित में हो रहा है या फिर शिक्षकों की अपनी नौकरी और सुविधा के लिए?
सरकार क्यों कर रही है स्कूलों का विलय?
उत्तर प्रदेश सरकार ने शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए स्कूलों के विलय की नीति अपनाई है। इसके तहत उन स्कूलों को आपस में जोड़ा जा रहा है जहाँ छात्र संख्या बहुत कम है या आसपास के क्षेत्रों में कई छोटे-छोटे स्कूल एक ही क्षेत्र में फैले हुए हैं।
मुख्य कारण:
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बच्चों की घटती संख्या:
कई प्राथमिक स्कूलों में बच्चों की संख्या 10 से भी कम रह गई है। ऐसे स्कूलों को बनाए रखना संसाधनों की बर्बादी है। -
अध्यक्ष व अध्यापकों की अनुपस्थिति:
कुछ स्कूलों में एक-दो ही शिक्षक हैं, जबकि पाठ्यक्रम और प्रबंधन के लिए 4-5 शिक्षकों की आवश्यकता होती है। -
शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की पहल:
सरकार का मानना है कि जब संसाधन और शिक्षक एक जगह केंद्रित होंगे तो बच्चों को बेहतर सुविधाएं और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा मिलेगी।
शिक्षकों का विरोध क्यों?
शिक्षक संगठनों का तर्क है कि यह कदम बिना ज़मीनी सच्चाई को समझे लिया गया है। उनके अनुसार:
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बच्चों को दूर जाना पड़ेगा:
स्कूलों के विलय से कुछ बच्चों को 2-3 किलोमीटर दूर तक पैदल जाना पड़ेगा। ग्रामीण क्षेत्रों में यह बड़ी समस्या बन सकती है। -
न्याय पंचायत और ग्राम स्तर पर स्कूलों का महत्व:
हर गाँव में स्कूल होना केवल शिक्षा नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवस्था का भी एक हिस्सा है। इससे स्थानीय पहचान और पहुँच बनी रहती है। -
शिक्षकों का स्थानांतरण या पद घटने का डर:
कुछ शिक्षक यह मानते हैं कि विलय के बाद उनकी नियुक्ति बदल दी जाएगी या उनकी ज़रूरत नहीं रह जाएगी, जिससे वे बेरोजगार हो सकते हैं।
वास्तविकता: बच्चों की चिंता या अपनी सुविधा?
अब सवाल उठता है कि क्या यह विरोध वास्तव में बच्चों के हित में है या फिर अपनी सुविधा और नौकरी के भय से प्रेरित है?
तथ्य यह कहते हैं:
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2015 से 2023 के बीच उत्तर प्रदेश में 20 लाख से अधिक बच्चों ने सरकारी स्कूलों से नाम कटवा लिया।
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शिक्षकों की संख्या में कोई विशेष कमी नहीं हुई, पर शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं हुआ।
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सैकड़ों स्कूल ऐसे हैं जहाँ शिक्षक हैं पर छात्र नहीं।
इन आंकड़ों से साफ होता है कि समस्या बच्चों की पढ़ाई की नहीं, बल्कि शिक्षा तंत्र की निष्क्रियता की है। ऐसे में जब सरकार एक संरचनात्मक सुधार करने की कोशिश करती है, तो विरोध यह दर्शाता है कि कहीं न कहीं व्यक्तिगत हित शिक्षक वर्ग की प्राथमिकता में हैं।
सरकारी स्कूलों की वास्तविक स्थिति
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अनुपस्थित शिक्षक:
नियमित निरीक्षणों में यह पाया गया है कि कई स्कूलों में शिक्षक समय पर नहीं आते। कभी-कभी स्कूल पूरी तरह से बंद मिले। -
बुनियादी सुविधाओं का अभाव:
अधिकांश स्कूलों में शौचालय, पेयजल, पुस्तकालय, कंप्यूटर, विज्ञान प्रयोगशाला जैसी सुविधाएं नहीं हैं। -
ड्रॉपआउट रेट अधिक:
बच्चों का प्राथमिक स्तर के बाद स्कूल छोड़ देना गंभीर समस्या है। इसका कारण गुणवत्ताहीन शिक्षा और मार्गदर्शन की कमी है।
क्या होना चाहिए समाधान?
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शिक्षकों की जिम्मेदारी तय हो:
केवल वेतन और पद की सुरक्षा की चिंता नहीं, शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने की ज़िम्मेदारी तय हो। -
ग्राम स्तर पर संवाद:
सरकार को स्कूलों के विलय से पहले स्थानीय ग्राम पंचायत, अभिभावकों और शिक्षकों से चर्चा करनी चाहिए। -
सुविधाजनक ट्रांसपोर्ट:
जिन बच्चों को दूर स्कूल जाना होगा, उनके लिए सरकार को साइकिल योजना या निःशुल्क वाहन व्यवस्था शुरू करनी चाहिए। -
मानक गुणवत्ता के 'क्लस्टर स्कूल':
एक स्थान पर उच्च गुणवत्ता वाले स्कूल बनाकर बच्चों को बेहतर शिक्षा, भोजन और सुविधाएं दी जा सकती हैं।
शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ हर निर्णय को छात्रों के हित को केंद्र में रखकर लिया जाना चाहिए। यदि शिक्षक वर्ग सच में बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित है तो उन्हें विलय जैसे निर्णयों को पूरी तरह खारिज करने के बजाय, उसमें सुधार के सुझाव देने चाहिए।
सरकार का इरादा यदि शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाना है तो उसे शिक्षकों की चिंताओं को भी सुनना चाहिए।
लेकिन यदि विरोध केवल अपनी सुविधा या नौकरी की चिंता को लेकर हो रहा है, तो यह पूरे समाज और बच्चों के भविष्य के साथ अन्याय है।
