साधु की संगति का अर्थ क्या है ? कब होता है संगति का असर

 
संत महात्मा

संतों के साथ बैठना ही संगति नहीं, विचार भी हो

जीव अनादि काल से क्रोध, मान, माया और लोभ के फेर में निरंतर दुखी होता आया है। लेकिन कभी समता स्वभाव के साधक सच्चे साधु, भगवंतों की संगति नहीं कर पाया। र|त्रय धारी सच्चे साधु, भगवंतों की संगति अति दुर्लभ है। इसके लिए महान पुण्य चाहिए। साधु संगति का अर्थ है कि जो अपने में विसंगतियां है, उनको समझकर दूर करने की भावना होना।

यह बातें सुमतिनाथ दिगंबर जैन बड़े मंदिर में चल रही धर्मसभा में श्रमणाचार्य विमर्श सागर मुनि ने कहीं। उन्होंने कहा कि मात्र साधु का साथ मिल जाने से संगति नहीं हो जाती। जिस प्रकार आप ट्रेन से सफर कर रहे थे, आपके पास वाली सीट पर एक शराबी व्यक्ति आकर बैठ गया, फिर भी आप उससे प्रभावित नहीं हो रहे, तो उसका साथ मात्र शराबी की संगति नही कहलाएगा।

हां यदि आपके मन में भी उसके जैसा आचरण करने का भाव आ गया तो जरूर आपके लिए वो शराबी की संगति कहलाएगी। दिगंबर जैन बड़ा मंदिर में मुनि, भगवंतों का प्रवचन सुनने पहुंचे श्रद्धालु। स्वयं व संत के जीवन में अंतर को समझना चाहिए साधु संगति में जाने के बाद यह विचार करना चाहिए कि हममें और साधु जीवन में क्या अंतर है। हमारे अंदर ऐसी कौन सी विसंगतियां है, जो हमें साधना के पथ पर आगे नहीं बढ़ने देती। उन विसंगतियों को जानकर उन्हें छोड़ने की भावना का होना और साधु भगवंतों जैसे बनने की भावना होना ही सही अर्थों में साधु संगति का फल है।

संत जैसे गुण न हो तो साधु संगति नही 

संतों के पास जाकर, उनके साथ रहकर भी यदि संतों जैसे महान गुण अपने जीवन में लाने का भाव जागृत न हो तो अभी साधु संगति नहीं हुई। इसके लिए विचार आने चाहिए। संतों की निकटता बड़े पुण्य योग से मिलती है आचार्य ने कहा कि संतोंं की निकटता भी महान पुण्य के योग से मिलती है। संतों के पवित्र आभामंडल में आने पर स्वयं ही परिणाम निर्मल होने लगते है। जिस प्रकार क्लास में जब मैथ्स का टीचर कक्षा में आतो हैं, तो भाव मैथ्स पढ़ने के हो जाते है। उसी प्रकार जब हम क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कशाय करने वालों की संगति में होते है, तो परिणाम बिगड़ने लगते है। लेकिन जब हम सच्चे संतो ंके पास जाते है तो भाव संतों सा बनने के होने लगते है। धर्मसभा में भक्त उपस्थित रहे।

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