आदिकवि महर्षि वाल्मीकि की भाव दृष्टि
Aadikaavi Maharishi Valmiki's emotional vision
Tue, 28 Oct 2025

(विवेक रंजन श्रीवास्तव – विनायक फीचर्स)
संस्कृत साहित्य के आदि स्रोत और महाकाव्य परंपरा के प्रवर्तक महर्षि वाल्मीकि न केवल काव्य के सृजनकर्ता हैं, बल्कि भारतीय काव्य चेतना के मूल प्रणेता भी हैं। जब उन्होंने क्रौंच पक्षी के वध से व्यथित होकर स्वाभाविक रूप से कहा –
“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥”
तो यह केवल एक श्लोक का जन्म नहीं था, बल्कि संपूर्ण भारतीय काव्य परंपरा का उद्गम हुआ। यह श्लोक वाल्मीकि की करुणामय भाव दृष्टि का प्रतीक है, जहाँ संवेदना, न्याय और सौंदर्य का अद्भुत संगम दिखाई देता है।
करुणा – वाल्मीकि की काव्य दृष्टि का केंद्र
महर्षि वाल्मीकि की काव्य दृष्टि का मूल भाव करुणा है। रामायण का प्रारंभ ही करुणा से होता है—एक निरीह पक्षी के वध पर कवि का हृदय द्रवित हो उठता है। यह करुणा केवल मानव तक सीमित नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि के प्रति संवेदना का परिचय देती है। सीता का वनवास, भरत की विरह व्यथा, उर्मिला का मौन त्याग, शबरी की भक्ति और जटायु का बलिदान—हर प्रसंग करुणा के रस से ओतप्रोत है। महर्षि वाल्मीकि ने दिखाया कि करुणा दुर्बलता नहीं, बल्कि मानवता का सर्वोच्च गुण है।
श्रीराम के जीवन में भी यह दृष्टि परिलक्षित होती है—रावण के प्रति सम्मान, विभीषण के प्रति स्नेह और शत्रुओं के प्रति मानवीय दृष्टिकोण, सब उसी करुणामय चेतना की झलक हैं।
धर्म का व्यावहारिक दर्शन
वाल्मीकि के लिए धर्म केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि जीवन का व्यावहारिक दर्शन है। उन्होंने श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया—ऐसा मनुष्य जो आदर्शों और कर्तव्यों के बीच संघर्ष करता है।
सीता निर्वासन का प्रसंग इसका प्रमाण है—जहाँ राजधर्म और व्यक्तिगत धर्म के बीच द्वंद्व को उन्होंने ईमानदारी से उकेरा। उनके अनुसार धर्म का अर्थ है—सत्य, न्याय, करुणा और कर्तव्य का समन्वय।
दशरथ की भूल, कैकेयी का मोह, राम की आज्ञाकारिता और लक्ष्मण का भ्रातृप्रेम—इन सभी पात्रों के माध्यम से वाल्मीकि ने बताया कि धर्म सरल नहीं होता; वह जीवन की जटिल परिस्थितियों में कठिन निर्णयों की माँग करता है।
स्त्री का गरिमामय स्थान
महर्षि वाल्मीकि की दृष्टि में स्त्री केवल भावनाओं की प्रतीक नहीं, बल्कि शक्ति, स्वाभिमान और निर्णय क्षमता की प्रतिमूर्ति है।
सीता पतिव्रता के साथ-साथ स्वाभिमानी और साहसी नारी हैं। अग्निपरीक्षा और त्याग के बाद भी उन्होंने अपना आत्मसम्मान बनाए रखा। कैकेयी को उन्होंने खलनायिका के रूप में नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से जटिल व्यक्तित्व के रूप में चित्रित किया।
शबरी, अहिल्या, तारा और मंदोदरी जैसे पात्रों में वाल्मीकि ने स्त्री की संवेदना और मानवीय गहराई को अद्भुत सौंदर्य के साथ उकेरा।
प्रकृति – जीवंत पात्र के रूप में
वाल्मीकि के काव्य में प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि सजीव पात्र के रूप में उपस्थित है। चित्रकूट, पंचवटी, किष्किंधा और लंका का वर्णन इतना जीवंत है कि पाठक स्वयं को उन स्थलों पर अनुभव करता है।
ऋतु, वन और नदी के वर्णनों में उनका सूक्ष्म निरीक्षण और गहन प्रकृति प्रेम झलकता है। राम के वनवास में प्रकृति की उदासी, युद्धकाल में उसका उग्र रूप, और मिलन के क्षणों में उसकी प्रसन्नता—यह सब कवि के प्रकृति-संवेदन का परिचायक है।
मानवीय संबंधों की गहराई
राम और लक्ष्मण का भ्रातृ प्रेम, राम-भरत का आदर्श संबंध, राम-सीता का दांपत्य, हनुमान की भक्ति, सुग्रीव-बाली का द्वंद्व—प्रत्येक संबंध में वाल्मीकि ने मानवीय भावनाओं की सूक्ष्मता को उकेरा है। भरत का राम की चरण पादुका रखकर राज्य करना त्याग की चरम अभिव्यक्ति है। वहीं उर्मिला का मौन त्याग उस भावनात्मक गहराई का प्रतीक है, जो शब्दों से परे है।
रावण – बहुआयामी चरित्र
वाल्मीकि की दृष्टि का सबसे बड़ा चमत्कार यह है कि उन्होंने रावण को एक मात्र खलनायक नहीं, बल्कि बहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत किया। रावण विद्वान, पराक्रमी और शिवभक्त है, किन्तु उसकी वासना ही उसके पतन का कारण बनती है।
कवि ने यह बताया कि हर व्यक्ति में अच्छाई और बुराई दोनों होती हैं—और धर्म का मार्ग चुनना ही मनुष्य की पहचान है।
भक्ति और ज्ञान का समन्वय
वाल्मीकि की रामायण में भक्ति, ज्ञान और कर्म का सुंदर संतुलन है। हनुमान की भक्ति में शक्ति और विवेक दोनों हैं। जटायु का आत्मबलिदान भक्ति की पराकाष्ठा है। उनके अनुसार सच्ची भक्ति अंधविश्वास नहीं, बल्कि प्रेम, समर्पण और कर्तव्य का पालन है।
सामाजिक और राजनीतिक चेतना
रामायण केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक चेतना का भी ग्रंथ है। राम का वनवास पितृभक्ति और आज्ञा पालन का प्रतीक है, जबकि निषादराज गुह और शबरी के प्रसंग समाज के वंचित वर्गों के प्रति समानता और सम्मान की भावना को उजागर करते हैं।
यह वाल्मीकि की व्यापक मानवीय दृष्टि का प्रमाण है।
काव्य शिल्प और सौंदर्यबोध
वाल्मीकि की भाषा सहज, प्रवाहमयी और हृदयस्पर्शी है। उन्होंने कृत्रिमता का सहारा नहीं लिया। उनके काव्य में वीर, करुण, शांत और भक्ति रसों का अद्भुत संगम है। अलंकार, उपमा और रूपक का प्रयोग स्वाभाविक और प्रभावशाली है। यही संतुलन उन्हें आदिकवि बनाता है।
शाश्वत और सार्वभौमिक दृष्टि
महर्षि वाल्मीकि की भाव दृष्टि किसी युग या समाज की सीमा में नहीं बंधी; वह शाश्वत और सार्वभौमिक है। उन्होंने केवल एक महाकाव्य नहीं रचा, बल्कि जीवन जीने की एक पद्धति, एक दर्शन और एक संस्कृति का निर्माण किया।
उनकी करुणा, धर्मबोध, प्रकृति प्रेम और मानवता की भावना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।
आज जब संसार हिंसा, असहिष्णुता और द्वेष से जूझ रहा है, तब महर्षि वाल्मीकि की करुणामय दृष्टि एक प्रकाशस्तंभ की तरह मार्गदर्शन देती है। उनका संदेश सरल है—
मनुष्य बनो, संवेदनशील बनो, धर्म का पालन करो और हर प्राणी के प्रति करुणाभाव रखो।
यही सच्ची मानवता है, यही जीवन का सार है।
महर्षि वाल्मीकि किसी वर्ग या समुदाय के नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के नायक हैं—ऐसे आदि कवि जिनकी भाव दृष्टि आज भी विश्व के लिए पथप्रदर्शक है।

