अकादमी सम्मान की रुकी हुई घोषणा
(विवेक रंजन श्रीवास्तव – विनायक फीचर्स)
सचिव का इंतजार था, जो संस्कृति मंत्रालय में निदेशक भी हैं। साहित्य अकादमी के सम्मान घोषित होने थे। इंतजार सिर्फ एक घोषणा का नहीं था, बल्कि उस व्यवस्था का था जो यह दावा करती है कि साहित्य स्वायत्त है। देश-दुनिया में साहित्य के जागरूक पाठक, सुधी रचनाकार और साहित्यिक पत्रकार सब प्रतीक्षा करते रह गए। अंततः कोई ब्यूरोक्रेट गले में पहचान पत्र डाले हाल में आया और दबी जुबान में कह गया—आज घोषणा नहीं होगी।
शब्द सहम गए। दृश्य किसी रंगमंच जैसा था, पर मंच देश की साहित्य अकादमी का था। कानाफूसी शुरू हुई—किसी ने कहा ऊपर से आदेश आया है, दो नाम जोड़ो। किसी ने कहा जूरी और सरकार में टकराव हो गया है। किसी ने कहा नाम तय हैं, बस घोषणा रोक दी गई है। इन तमाम गपशपों के बीच सच्चाई कहीं बीच में दुबकी जरूर बैठी थी, पर उसे कुर्सी नसीब नहीं हुई। सब खाली होती कुर्सियों को देखते रहे।
जिस हाल में कैमरे सज चुके हों, सवालों की फेहरिस्त तैयार हो और समय की सुई प्रेस कांफ्रेंस के तय क्षण पर आकर ठहर जाए—वहीं पर्दा उठने से पहले ही गिरा दिया गया। दर्शक तालियां बजाने के बजाय सिर खुजाते हुए हाल से बाहर निकलने को मजबूर हो गए। साहित्य अकादमी के इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हुआ कि न प्रेस कांफ्रेंस हुई, न कोई प्रेस रिलीज जारी की गई।

पत्रकार घर लौट आया, पर खबर वहीं की वहीं अटक गई। भीतर क्या हुआ, यह कोई बताने को तैयार नहीं; पर बाहर बैठे हर व्यक्ति को इतना जरूर पता है कि भीतर कुछ न कुछ जरूर हुआ है। मंत्री जी हों, सफेद शर्ट वाले आका हों या बड़े प्रकाशक—कोई न कोई तो है जिसके पास घोषणा रोकने की ताकत है। सरकारी गलियारों की यही खासियत होती है कि वहां जब कुछ नहीं होता तब भी भीतर ही भीतर बहुत कुछ हो रहा होता है, और जब बहुत कुछ हो रहा होता है तब भी उसे ‘कुछ भी नहीं’ कहा जाता है।अब सवाल यह है कि इस उठापटक के बाद जो पुरस्कार घोषित होंगे, उन्हें सम्मान कहा जाए या जुगाड़? प्रेशर पॉलिटिक्स या प्रतिभा? कलम का अपमान या समझौता? उपलब्धि या अनुकंपा?
साहित्य का मौलिक स्वभाव प्रश्न करना है, जबकि पुरस्कार का स्वभाव अक्सर चुप करा देना होता है। जो लेखक कल तक व्यवस्था की विसंगतियों पर कलम चला रहा था, यदि आज उसी व्यवस्था की चुप्पी पर मौन साध ले, तो आम पाठक के भीतर का आदमी ठगा-सा रह जाता है। यही वह बिंदु है जहां व्यंग्य जन्म लेता है—वह रोता नहीं, हंसता है, ताकि रोने की आवाज कहीं दब न जाए।
नोबेल पुरस्कार की राजनीति अब फुसफुसाहट नहीं रही। साम-दाम-दंड-भेद के सूत्र वहां भी खुली किताब की तरह पढ़े जा रहे हैं। जब विश्व का सबसे प्रतिष्ठित मंच सत्ता समीकरणों से अछूता नहीं है, तो अपने यहां के छोटे-बड़े मंचों से मासूमियत की उम्मीद करना बालसुलभ ही है। उत्तर प्रदेश राज्य सरकार के सम्मान और पुरस्कार वर्षों से लंबित हैं, फाइलें धूल खा रही हैं। सम्मान अब केवल योग्यता का नहीं, धैर्य का भी इम्तहान बन चुके हैं।
इस पूरी कथा का सबसे रोचक पहलू यह है कि सबको सब पता है, पर कोई कुछ नहीं जानता। यह अनभिज्ञता नहीं, बल्कि एक संस्थागत अभिनय है। जब अकादमी जैसे मंच पर प्रेस कांफ्रेंस का रद्द होना रहस्य बन जाए, तो समझ लेना चाहिए कि साहित्य से ज्यादा राजनीति और साहित्य की जुगलबंदी की गोपनीयता फल-फूल रही है।समाधान क्या है? समाधान वही पुराना है—पुरस्कारों की प्रक्रिया सार्वजनिक की जाए, जूरी की राय को संक्षेप में सामने रखा जाए। यदि सरकार का दखल है, तो उसे स्वीकार कर स्पष्ट और वैधानिक नामांकन नीति बनाई जाए, ताकि पर्दे के पीछे की फुसफुसाहट मंच के खुले संवाद में बदल सके। और सबसे जरूरी यह कि लेखक पुरस्कार को अंतिम सत्य न माने, बल्कि पाठक को ही अपना स्थायी निर्णायक समझे।
व्यंग्यकार के लिए यह समय उपजाऊ है, क्योंकि विसंगति खुलेआम मुस्कुरा रही है। यह पूरा प्रसंग किसी प्रहसन से कम नहीं—जहां पात्र गंभीर हैं, संवाद गुप्त हैं और मंच पर अंधेरा है। फर्क बस इतना है कि यहां शो के प्रवेश पत्र पाठक, लेखक और साहित्य-प्रेमी ले चुके हैं, पर शो रद्द कर दिया गया है।ऐसे में हंसी ही बचाव है और सवाल ही उम्मीद। साहित्य यदि जीवित है, तो वह इन रहस्यों पर हंसेगा भी और उन्हें उजागर भी करेगा। यही साहित्य की सदियों पुरानी जिद है—और यही उसका दायित्व भी।
