दृष्टिकोण: जातीय वैमनस्य को बढ़ावा देना—समाज विरोधी कृत्य

Approach:
Promoting racial hatred—Anti-social act
 
Approach:  Promoting racial hatred—Anti-social act
(डॉ. सुधाकर आशावादी – विभूति फीचर्स)
विकासशील और प्रगतिशील समाज में जब लोग शांति और सौहार्द के साथ जीवन जीने लगते हैं, तो कुछ विघटनकारी शक्तियों को यह स्थिति असहज करने लगती है। ऐसे तत्व समाज में अशांति फैलाने के लिए लगातार नए-नए बहाने ढूंढते रहते हैं। दुर्भाग्यवश, भारत में भी एक ऐसा वर्ग सक्रिय होता जा रहा है, जो अपने निजी स्वार्थों के लिए जातीय तनाव और सामाजिक वैमनस्य को बढ़ावा देता है।

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आजकल देखा जा रहा है कि कुछ समूह आपराधिक घटनाओं को जानबूझकर जातिगत चश्मे से देखने लगे हैं। वे अपराध या पीड़ित व्यक्ति की जाति को उजागर कर, सामान्य घटनाओं को भी जातीय संघर्ष का रूप देने की कोशिश करते हैं। कभी ब्राह्मण और यादवों के बीच टकराव की कहानी गढ़ी जाती है, तो कभी राजपूत और अन्य जातियों के बीच दरार डालने की साजिशें रची जाती हैं। इन सारी गतिविधियों का मकसद सनातन संस्कृति की समरसता को खंडित करना और हिन्दू समाज में जातीय विभाजन को गहरा करना है।

चौंकाने वाली बात यह है कि जब वही घटनाएं तथाकथित गैर-हिन्दू समुदायों या स्वयं इन विघटनकारी तत्वों की जातियों से जुड़ी होती हैं, तो ये लोग पूरी तरह चुप्पी साध लेते हैं। यह मौन इनके छिपे एजेंडे और पक्षपातपूर्ण मानसिकता को उजागर करता है।
सोशल मीडिया से लेकर सार्वजनिक मंचों और सड़कों तक, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जातीय विद्वेष फैलाने की कोशिशें की जा रही हैं। कुछ तत्व राष्ट्रविरोधी नारों और गतिविधियों में भी संलिप्त हो चुके हैं। यह विडंबना है कि जो लोग इस देश की सुविधाओं और संसाधनों का भरपूर लाभ उठा रहे हैं, वे ही राष्ट्र की जड़ों को कमजोर करने का दुस्साहस कर रहे हैं।
सरकार की निष्क्रियता और इन तत्वों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई का अभाव, इनकी हिम्मत को और बढ़ावा दे रहा है। यह स्थिति बेहद चिंताजनक है। सवाल उठता है कि जब न्यायपालिका कई बार स्वतः संज्ञान लेकर अपराधियों पर कार्रवाई करती है, तो फिर समाज में जहर घोलने वाले इन विघटनकारी प्रचारकों पर कठोर कार्रवाई क्यों नहीं होती?
यह ज़रूरी है कि जाति और धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वालों की पहचान कर उनके विरुद्ध सख्त कानूनी कार्यवाही की जाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं कि कोई व्यक्ति सामाजिक सौहार्द को तोड़ने की छूट ले। संविधान ने जहाँ अभिव्यक्ति का अधिकार दिया है, वहीं उसकी सीमाएं भी तय की हैं।
जब तक इन अराजक और समाजविरोधी शक्तियों पर कानून का शिकंजा नहीं कसा जाएगा और देशद्रोह जैसे कठोर प्रावधानों के तहत कार्रवाई नहीं की जाएगी, तब तक सामाजिक शांति और राष्ट्रीय एकता को खतरे में बने रहना तय है।

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