दृष्टिकोण: घटती विश्वसनीयता और भ्रामक वक्तव्य का संकट

Viewpoint: Declining credibility and the crisis of misleading statements
 
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"चल रहे हैं दौर विष के देवता के आवरण में,
रात की काली लटा है भोर के पहले चरण में,
देश का दुर्भाग्य चिंतन क्या भला चिंतक करेंगे,
साथ देते हैं जटायु आज के सीता हरण में।"

इन पंक्तियों के माध्यम से देश की राजनीतिक और सामाजिक वास्तविकता की व्यथा को समझा जा सकता है। आज की राजनीति केवल सत्ता संघर्ष में उलझी प्रतीत होती है। नीतियों और विचारों की जगह अब निजी महत्वाकांक्षाओं और तात्कालिक लाभ ने ले ली है।देश में कई क्षेत्रों—विशेषकर पश्चिम बंगाल और बिहार—में विदेशी घुसपैठ एक गंभीर समस्या बन चुकी है। इसके बावजूद कुछ राजनीतिक दलों और उनके प्रतिनिधियों की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। क्या यह मौन तुष्टिकरण की राजनीति नहीं है? नागरिकता की जांच का विरोध और मतदाताओं की वास्तविक पहचान को लेकर दुविधा पैदा करना—यह किसका हित साध रहा है?

धर्मांतरण जैसे अति संवेदनशील विषयों पर भी विपक्षी गठबंधन से जुड़े नेता खामोश रहते हैं, जिससे असामाजिक तत्वों को अप्रत्यक्ष समर्थन मिलता है। राजनीति अब मुद्दों को हल करने के बजाय उन्हें भड़काने का माध्यम बन गई है।मध्यप्रदेश में एक वरिष्ठ नेता द्वारा कांवड़ यात्रा की तुलना सड़क पर नमाज़ पढ़ने से करना न केवल असंवेदनशील है, बल्कि समाज को बांटने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। कुछ राजनेता तो जातीय अपमान को सहकर भी उन विचारधाराओं का समर्थन करते हैं, जो देश की एकता के विरुद्ध हैं।

विश्वसनीयता का संकट

वर्तमान समय में नेताओं के वक्तव्यों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगना आम बात हो गई है। बार-बार किए गए वादे और घोषणाएं जब धरातल पर नहीं उतरतीं, तो आम नागरिकों का भरोसा डगमगाता है। उदाहरण स्वरूप, कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा समय-समय पर एनडीए की हार की “गारंटी” देना, या असम के मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भेजने की बात करना, न तो राजनीतिक परिपक्वता को दर्शाता है और न ही संविधान में आस्था को। यह सवाल उठता है कि जब स्वयं राहुल गांधी कई कानूनी मामलों में जमानत पर बाहर हैं, तो वे किस आधार पर दूसरों को जेल भेजने की बात करते हैं? क्या यह दोहरे मापदंड नहीं हैं?

यह स्थिति केवल एक दल या व्यक्ति तक सीमित नहीं है। आज पक्ष-विपक्ष के अनेक नेता सार्वजनिक मंचों से ऐसे बयान देते हैं, जिनका कोई ठोस आधार नहीं होता। अगर 90% वक्तव्य केवल भ्रम फैलाने के लिए दिए जा रहे हों, तो उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

समाप्ति: राजनीति को दिशा देने की ज़रूरत

देश की राजनीति अब उस मोड़ पर खड़ी है जहां भ्रामक भाषणों से जनमानस में निराशा बढ़ रही है। ऐसे में आवश्यक है कि नेता अपने शब्दों की गंभीरता को समझें और केवल आरोप-प्रत्यारोप के बजाय ठोस नीतियों और समाधान की बात करें। देश को परिवारवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में सोचने वाली राजनीति की आवश्यकता है। जब तक नेता केवल मंचों पर बोलने और टीआरपी बटोरने तक सीमित रहेंगे, तब तक आम जनता का विश्वास भी धीरे-धीरे क्षीण होता जाएगा।

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