दृष्टिकोण: सांस्कृतिक मेलों के अस्तित्व पर मंडराता संकट

View: Crisis hovering over the existence of cultural fairs
 
दृष्टिकोण: सांस्कृतिक मेलों के अस्तित्व पर मंडराता संकट

लेखक: डॉ. सुधाकर आशावादी | विनायक फीचर्स भारत एक बहुधर्मी और बहुसांस्कृतिक राष्ट्र है, जहाँ विविधता में एकता की मिसाल देखने को मिलती है। यहां के पर्व-त्योहार और मेले न केवल सामाजिक समरसता के प्रतीक हैं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और पारंपरिक आजीविका के भी महत्वपूर्ण स्तंभ रहे हैं। किंतु बदलते समय के साथ अब इन मेलों के अस्तित्व पर गहराता संकट महसूस किया जा रहा है।

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मेलों की सांस्कृतिक विरासत पर बाजारवाद का प्रभाव

बीते समय में मेले ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार हुआ करते थे। साज-सज्जा, व्यापार, मनोरंजन और धार्मिक आस्था का समावेश करते ये आयोजन एक समुदाय को जोड़ने वाले सेतु की तरह काम करते थे। किंतु अब डिजिटल युग में जब हर चीज़ घर बैठे मंगवाना संभव हो गया है, तो मेलों का महत्व आधुनिक जीवनशैली में धीरे-धीरे गौण होता जा रहा है।

मेलों में हिस्सा लेने वाले पारंपरिक कारीगर, झूला और सर्कस संचालक, लघु व्यापारी अब आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। उनके लिए मेले कभी जीविका का साधन थे, जो अब धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं।

उदाहरण: मेला नौचंदी और उसकी बदलती तस्वीर

उत्तर भारत का प्रसिद्ध मेला नौचंदी एक ऐतिहासिक सांस्कृतिक आयोजन रहा है, जो मेरठ शहर की पहचान बन चुका था। कभी यह मेला साम्प्रदायिक सौहार्द, पारंपरिक व्यापार और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का केंद्र हुआ करता था। देश के कोने-कोने से व्यापारी इसमें भाग लेते थे – चाहे वह कन्नौज का इत्र हो, बरेली का फर्नीचर या भागलपुर की चादरें।

कवि सम्मेलन, मुशायरे, सिने स्टार नाइट, क़व्वालियाँ और नौटंकी जैसे कार्यक्रम इस मेले को जीवंत बनाते थे। श्रद्धालु चैत्र नवरात्रि में चण्डी माता के मंदिर और पास ही स्थित बाले मियाँ की मज़ार पर जाकर पूजा और इबादत करते थे। यह आयोजन न केवल धार्मिक था बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक अनुभव भी होता था।

प्रशासनिक उपेक्षा और आयोजन की अनियमितता

दुर्भाग्यवश, आज वही मेला केवल सरकारी औपचारिकता और बजट खर्च करने का साधन बनकर रह गया है। मेला समय से शुरू नहीं होता; कभी ढाई महीने की देरी होती है, तो कभी कार्यक्रम बिना दर्शकों के संपन्न होते हैं। इससे न तो श्रद्धालुओं को संतोष मिलता है और न ही सांस्कृतिक आयोजनों की सार्थकता रह जाती है।

बजट का अपारदर्शी उपयोग, प्रभावशाली लोगों की हस्तक्षेपपूर्ण भूमिका, और मेलों के पारंपरिक स्वरूप से खिलवाड़ ने इन आयोजनों को खोखला बना दिया है। केवल आयोजन करना ही उद्देश्य रह गया है, भाव और मूल उद्देश्य पीछे छूटते जा रहे हैं।

आने वाले समय में मेलों का भविष्य क्या होगा?

यदि प्रशासनिक लापरवाही और बाजार केंद्रित सोच ने इसी तरह मेलों की आत्मा को कुचलना जारी रखा, तो भविष्य में ये आयोजन केवल इतिहास की किताबों तक सीमित रह जाएंगे। जो मेले कभी लोक संस्कृति के जीवंत केंद्र हुआ करते थे, वे अब धीरे-धीरे महत्वहीन होते जा रहे हैं।

मेलों को केवल व्यापारिक आयोजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर के रूप में पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है। पारंपरिक समय-सारिणी, जनसहभागिता, पारदर्शिता और सांस्कृतिक मूल्यों को प्राथमिकता दिए बिना इन आयोजनों की सार्थकता पुनः स्थापित नहीं की जा सकती।

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