असरानी: हँसी की दुनिया का अनमोल रत्न

 
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(लेखक: राकेश अचल | स्रोत: विभूति फीचर्स)
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जब भी मैंने हिंदी फिल्मों की दुनिया में कदम रखा, असरानी को परदे पर मुस्कुराते और हँसाते पाया। भारतीय सिनेमा के तमाम मशहूर हास्य कलाकारों को देखने और कई से मिलने का अवसर मिला, लेकिन असरानी जैसे कलाकार की अलग ही छाप थी। वे किसी की छाया नहीं, बल्कि खुद में एक मुकम्मल कलाकार थे।
1 जनवरी 1941 को राजस्थान की गुलाबी नगरी जयपुर में जन्मे असरानी का असली नाम बहुत कम लोग जानते हैं। उन्होंने जयपुर से स्नातक की पढ़ाई पूरी की और फिर पुणे स्थित भारतीय फिल्म और टेलीविज़न संस्थान (FTII) में अभिनय की बारीकियाँ सीखीं। साल 1967 में उन्होंने फिल्मी दुनिया में कदम रखा, परंतु उनकी असली पहचान कुछ वर्षों बाद बनी।

कॅरियर की शुरुआत और पहचान

‘गुड्डी’ में छोटे से रोल के बाद मनोज कुमार की नजर उन पर पड़ी और धीरे-धीरे असरानी को फ़िल्में मिलने लगीं। फ़िल्म 'शोले' में "अंग्रेजों के ज़माने के जेलर" का उनका किरदार इतना प्रसिद्ध हुआ कि वे रातों-रात दर्शकों के चहेते बन गए। इस भूमिका के लिए उन्हें ‘हिटलर’ जैसी शख्सियत को ध्यान में रखकर अभिनय करने की सलाह दी गई थी।

गायकी का भी शौक

असरानी का झुकाव संगीत की ओर भी था। उन्होंने 1977 में फ़िल्म ‘आलाप’ में दो गाने गाए, जो उन्हीं पर फिल्माए गए थे। 1978 में वे किशोर कुमार के साथ ‘फूल खिले हैं गुलशन गुलशन’ में गाते भी नजर आए।

सिनेमा में व्यापक योगदान

असरानी ने सैकड़ों फिल्मों में अभिनय किया — ‘ढोल’, ‘धमाल’, ‘शाका लाका बूम-बूम’, ‘भूल भुलैया’, ‘भागम भाग’, ‘गरम मसाला’, ‘चुपके चुपके’, ‘मालामाल वीकली’, ‘फुल एन फाइनल’, ‘दीवाने हुए पागल’, ‘खुल्लम खुल्ला प्यार करें’, ‘इन्सान’, ‘एक से बढ़कर एक’ जैसी फिल्मों से लेकर दर्जनों ऐसी फ़िल्में जिनकी गिनती कर पाना भी मुश्किल है।

सम्मान और पुरस्कार

असरानी को उनके योगदान के लिए कई बार सम्मानित किया गया। विशेष रूप से गुजराती फिल्म ‘सात कैदी’ के लिए उन्हें गुजरात सरकार द्वारा ‘सर्वश्रेष्ठ अभिनेता’ और ‘सर्वश्रेष्ठ निर्देशक’ का पुरस्कार मिला।

उनकी खासियत

वे कभी ‘भगवान दादा’, ‘धुमाल’, ‘महमूद’ या ‘आई एस जौहर’ नहीं बने — वे सिर्फ 'असरानी' रहे। साधारण कद-काठी होने के बावजूद वे आत्मविश्वास से भरपूर थे। उन्होंने कभी भी अपनी छवि को लेकर हीन भावना नहीं पाली। हर अभिनेता और अभिनेत्री के साथ उनकी केमिस्ट्री सहज और स्वाभाविक थी।
एक विनम्र विदाई
असरानी हमेशा चकाचौंध से दूर रहे, लेकिन उनके अभिनय की चमक कभी फीकी नहीं पड़ी। वे मंच से उतर गए, लेकिन दर्शकों के दिलों में हमेशा रहेंगे। उन्होंने न सिर्फ हँसाया, बल्कि अपने किरदारों के ज़रिए जीवन की सहजता भी दिखाई।
उनकी सादगी, उनकी कलात्मकता और उनका हास्यबोध हिंदी सिनेमा की धरोहर बन चुका है। वे सिर्फ एक अभिनेता नहीं, बल्कि आम आदमी की हँसी के सच्चे साथी थे।
हास्य के इस सरल, सच्चे कलाकार को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।

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