“नया भारत” और न्याय का विरोधाभास: नेहा सिंह राठौर की टिप्पणी

 
beti bachao or bail bachao neha singh rathore exposes the

“नया भारत” और न्याय का विरोधाभास: नेहा सिंह राठौर की टिप्पणी

आज के भारत को अक्सर “नया भारत” कहा जाता है—एक ऐसा भारत जहाँ नारे बहुत तेज़ी से आगे बढ़ते हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत अक्सर पीछे छूट जाती है। इसी विरोधाभास पर लोकगायिका और सामाजिक टिप्पणीकार नेहा सिंह राठौर ने एक बार फिर तीखा और व्यंग्यात्मक सवाल खड़ा किया है।

इस चर्चा की पृष्ठभूमि है उन्नाव रेप केस, जिसमें आरोपी और पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को दिल्ली हाईकोर्ट से ज़मानत मिली। इस फैसले के बाद समाज दो हिस्सों में बँटा नज़र आया—
एक वर्ग ने कहा, “यह अदालत का फैसला है,”
तो दूसरे वर्ग ने कहा, “फैसला अदालत का है, लेकिन मन इससे सहमत नहीं।”

इसी दूसरी आवाज़ का प्रतिनिधित्व करती हैं नेहा सिंह राठौर। उनका कहना है—
“आजकल नए भारत में कुछ भी हो सकता है।”
यह वाक्य केवल एक टिप्पणी नहीं, बल्कि मौजूदा हालात पर एक गहरी टिप्पणी बन जाता है।

न्याय व्यवस्था पर सवाल

नेहा का तर्क है कि एक ओर सामाजिक कार्यकर्ता और असहमति की आवाज़ें जेल में नज़र आती हैं, वहीं दूसरी ओर गंभीर अपराधों के आरोपी ज़मानत पर बाहर आ जाते हैं। यह स्थिति न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करती है।
उनके शब्दों में, यह ऐसा है मानो अपराध और उसके परिणाम परिस्थितियों और “मूड” के हिसाब से तय हो रहे हों।

“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” और ज़मीनी सच्चाई

सरकारी नारे “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” पर भी नेहा ने कटाक्ष किया। उनका सवाल सीधा है—
“बेटी को बचाना किससे है—अपराधियों से या सिर्फ नारों से?”

उनका मानना है कि भाषणों में सख़्त शब्द होते हैं, लेकिन ज़मीन पर न्याय कई बार लचीला दिखाई देता है। ऐसे मामलों में ज़मानत या रियायत देना सिर्फ एक कानूनी फैसला नहीं, बल्कि पूरी न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता की परीक्षा है।

नेहा ने समाज से अपील की कि देश की बेटियाँ और नागरिक पीड़ितों के साथ खड़े हों, क्योंकि जब व्यवस्था चुप हो जाती है, तब समाज की आवाज़ ही सबसे अहम होती है।

त्योहार और राजनीति

नेहा सिंह राठौर ने हाल के समय में क्रिसमस जैसे त्योहारों के विरोध पर भी चिंता जताई। उनका कहना है कि किसी भी त्योहार का विरोध देश को मज़बूत नहीं, बल्कि कमज़ोर करता है।
अगर हर पर्व पर आपत्ति होगी, तो कैलेंडर में त्योहार नहीं, सिर्फ विवाद रह जाएंगे।

उनका सवाल है—
“अपने ही देश में अल्पसंख्यकों को डराकर कैसा राष्ट्रवाद बनाया जा रहा है?”

अंतरराष्ट्रीय छवि और लोकतंत्र

नेहा का मानना है कि नफ़रत और धमकी वाले वीडियो केवल सोशल मीडिया पर व्यूज़ नहीं बटोरते, बल्कि भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को भी नुकसान पहुँचाते हैं। विदेशों में रहने वाले भारतीयों को भी इसका असर झेलना पड़ता है।

उनके अनुसार, ईद, दिवाली, क्रिसमस—हर त्योहार मनाना एक मौलिक अधिकार है, जो संविधान ने दिया है। मंदिर, मस्जिद या चर्च—कहाँ जाना है, यह नागरिक का अधिकार है, न कि किसी की अनुमति का विषय।

अगर ये अधिकार धीरे-धीरे कमज़ोर होते गए, तो लोकतंत्र सिर्फ किताबों तक सीमित रह जाएगा।

निष्कर्ष

नेहा सिंह राठौर का संदेश स्पष्ट है—
यह लड़ाई किसी एक पार्टी, एक धर्म या एक मामले की नहीं है।
यह लड़ाई है इंसानियत बनाम पाखंड की।

और अगर “नए भारत” में सवाल पूछना ही जोखिम बन जाए, तो वाकई—
“आजकल नए भारत में कुछ भी हो सकता है।”

Tags