बिहार में वोटर लिस्ट को लेकर नया आदेश: क्या 11 दस्तावेज़ों की शर्त वोटिंग अधिकारों पर सवाल खड़ा करती है?

आज हम बात करने जा रहे हैं बिहार में एक ऐसे मुद्दे की, जो इस समय हर घर में चर्चा का विषय बना हुआ है। जी हां, हम बात कर रहे हैं चुनाव आयोग के उस आदेश की, जिसमें बिहार के मतदाताओं से 11 तरह के दस्तावेज मांगे गए हैं ताकि उनकी वोटर लिस्ट में जगह बनी रहे। लेकिन सवाल ये है - क्या ये दस्तावेज जुटाना इतना आसान है? और बिहार के लोग इस प्रक्रिया में किन-किन मुश्किलों का सामना कर रहे हैं? चलिए, इस मुद्दे को गहराई से समझते हैं।
बिहार में 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले, चुनाव आयोग ने (Special Intensive Revision) शुरू किया है। इसका मकसद है वोटर लिस्ट को पूरी तरह अपडेट करना - यानी, अपात्र लोगों को हटाना और पात्र लोगों को शामिल करना। लेकिन इस प्रक्रिया में एक नया नियम लागू किया गया है, जिसके तहत हर मतदाता को अपनी नागरिकता और पहचान साबित करने के लिए 11 तरह के दस्तावेजों में से कोई एक जमा करना होगा।
ये दस्तावेज हैं: जन्म प्रमाण पत्र
पासपोर्ट
एससी/एसटी/ओबीसी प्रमाण पत्र
स्थायी निवास प्रमाण पत्र
मैट्रिक या शैक्षणिक प्रमाण पत्र
राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC)
सरकारी जमीन या मकान आवंटन प्रमाण पत्र
परिवार रजिस्टर
पेंशन भुगतान आदेश
वनाधिकार प्रमाण पत्र
2003 की मतदाता सूची में माता-पिता का नाम
अब सवाल ये है - बिहार जैसे राज्य में, जहां अधिकांश लोग गरीब और कम पढ़े-लिखे हैं, इनमें से कितने लोगों के पास ये दस्तावेज हैं? और अगर नहीं हैं, तो क्या होगा?
चुनाव आयोग का ये आदेश सुनने में तो ठीक लगता है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और बयां करती है। बिहार में एक बड़ी आबादी ऐसी है, जिसके पास आधार कार्ड, वोटर ID, या राशन कार्ड जैसे बेसिक दस्तावेज तो हैं, लेकिन चुनाव आयोग ने इन्हें इस लिस्ट में शामिल ही नहीं किया।
जन्म प्रमाण पत्र की समस्या: बिहार में जन्म पंजीकरण का रिकॉर्ड ऐतिहासिक रूप से कमजोर रहा है। 2018 के आंकड़ों के मुताबिक, बिहार में 18% लोग आज भी घरों में जन्म लेते हैं, और उनके पास जन्म प्रमाण पत्र नहीं होता। पुराने समय में तो ये स्थिति और खराब थी।
शिक्षा और मैट्रिक प्रमाण पत्र: बिहार की जाति जनगणना के अनुसार, केवल 15% लोग मैट्रिक पास हैं। ऐसे में, अधिकांश ग्रामीणों के पास शैक्षणिक प्रमाण पत्र कहां से होंगे?
माता-पिता का जन्म प्रमाण पत्र: अगर कोई व्यक्ति 1987 के बाद पैदा हुआ है, तो उसे अपने माता-पिता का जन्म प्रमाण पत्र भी देना होगा। लेकिन अगर उनके माता-पिता का जन्म भी घर पर हुआ हो, तो ये दस्तावेज कहां से आएंगे?
ग्रामीण लोग कह रहे हैं, "हमारे पास तो सिर्फ आधार कार्ड, वोटर कार्ड, और मनरेगा कार्ड है। बाकी दस्तावेज हम कहां से लाएं?"
इसके अलावा, प्रवासी मजदूरों की भी अपनी मुश्किलें हैं। बिहार से लाखों लोग रोजी-रोटी के लिए दूसरे राज्यों में रहते हैं। उनके लिए 25 दिनों के भीतर बिहार लौटकर दस्तावेज जमा करना लगभग असंभव है।
चुनाव आयोग ने इस पूरी प्रक्रिया के लिए सिर्फ 25 दिन का समय दिया है। 25 जुलाई 2025 तक सारे दस्तावेज जमा करने हैं, और 1 सितंबर तक नई मतदाता सूची जारी हो जाएगी। लेकिन इतने कम समय में 7.89 करोड़ मतदाताओं की जांच कैसे होगी?
सरकारी दफ्तरों में भीड़: लोग जन्म प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र, और निवास प्रमाण पत्र बनवाने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं। लेकिन इन दस्तावेजों को बनवाने में 10-15 दिन लग जाते हैं, और कई बार घूस के बिना काम नहीं होता।
बीएलओ की कमी: बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) को घर-घर जाकर दस्तावेज इकट्ठा करना है, लेकिन 77,000 बीएलओ के साथ इतने बड़े पैमाने पर काम करना आसान नहीं है।
बिहार में विपक्षी दल इस प्रक्रिया को लेकर खुलकर विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि ये गरीबों, दलितों, और अल्पसंख्यकों को मतदान के अधिकार से वंचित करने की साजिश है। तेजस्वी यादव ने कहा, "25 दिनों में 8 करोड़ लोगों की वोटर लिस्ट बनाना असंभव है। ये कदम अचानक उठाया गया है, और ये गरीबों को वोट से रोकने की साजिश है।"
ओवैसी ने इसे गुप्त NRC करार दिया और कहा कि बिहार में नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज मांगना अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने का तरीका है।
: कांग्रेस ने इसे मतदान अधिकारों की डकैती बताया और कानूनी कार्रवाई की धमकी दी है।
विपक्ष का कहना है कि अगर आधार कार्ड जैसे दस्तावेज मान्य हैं तो उन्हें क्यों नहीं स्वीकार किया जा रहा? और इतने कम समय में ये प्रक्रिया क्यों शुरू की गई, जब फरवरी 2025 में ही वोटर लिस्ट अपडेट की गई थी?
इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा डर ये है कि बिहार में लाखों, बल्कि 2 करोड़ तक लोग वोटर लिस्ट से बाहर हो सकते हैं। खासकर गरीब, दलित, और अल्पसंख्यक समुदायों पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ सकता है।
अगर इतनी बड़ी संख्या में लोग वोट देने से वंचित हो जाएंगे, तो क्या ये लोकतंत्र की भावना के खिलाफ नहीं है?
आयोग का कहना है कि ये प्रक्रिया वोटर लिस्ट को शुद्ध करने के लिए है, ताकि अवैध प्रवासियों को हटाया जा सके। लेकिन क्या इस प्रक्रिया में वास्तविक मतदाताओं का नुकसान नहीं हो रहा?
ग्रामीणों में डर है कि अगर उनका नाम वोटर लिस्ट से कट गया, तो उनकी नागरिकता पर भी सवाल उठ सकते हैं।
दोस्तों, बिहार में चुनाव आयोग का ये कदम एक तरफ तो वोटर लिस्ट को शुद्ध करने की कोशिश है, लेकिन दूसरी तरफ लाखों लोगों के लिए मुसीबत बन गया है। सवाल ये है कि क्या इतने कम समय में इतनी बड़ी आबादी के दस्तावेज जमा हो पाएंगे? और क्या ये प्रक्रिया वाकई निष्पक्ष है? आप इस बारे में क्या सोचते हैं? क्या आपको भी लगता है कि ये साजिश है, या ये जरूरी कदम है? अपनी राय हमें कमेंट में जरूर बताएं।