आर्थिक सौदेबाज़ी में बदलती विवाह संस्था

The changing institution of marriage in economic negotiations.
 
न्यायालय ने दहेज को एक ऐसी ‘क्रॉस-कल्चरल’ सामाजिक बुराई बताया, जो आज उपहारों, रस्मों और सामाजिक अपेक्षाओं की आड़ में क़ानून की परिभाषाओं से फिसल जाती है। यह स्थिति केवल आपराधिक मानसिकता का परिणाम नहीं, बल्कि उस संरचनात्मक हिंसा का प्रमाण है जो भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था में गहराई तक समाई हुई है। यहाँ विवाह अब भावनात्मक या सामाजिक बंधन न रहकर, स्त्री को चल संपत्ति के रूप में आँकने का माध्यम बनता जा रहा है।  इस संदर्भ में कार्ल मार्क्स के वस्तुकरण सिद्धांत को याद करना प्रासंगिक है, जहाँ मानवीय संबंध भी वस्तुओं की तरह मूल्यांकित होने लगते हैं। साथ ही आंद्रे बेतेई के वर्ग और असमानता संबंधी विश्लेषण यह स्पष्ट करते हैं कि आधुनिक भारत में मध्यवर्गीय आकांक्षाएँ और सामाजिक प्रतिस्पर्धा विवाह को सामाजिक उन्नयन का साधन बना देती हैं।  मैक्स वेबर के ‘स्टेटस ग्रुप’ सिद्धांत और एम.एन. श्रीनिवास की संस्कृतिकरण की अवधारणा यह समझने में मदद करती है कि किस प्रकार निम्न और मध्य जातियाँ उच्च जातीय प्रथाओं की नकल करते हुए दहेज जैसी कुप्रथाओं को अपनाती हैं, ताकि सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त की जा सके। इसका परिणाम यह होता है कि दहेज का दायरा और अधिक व्यापक व गहराता चला जाता है।  यदि दुर्खीम की एनोमी की अवधारणा को टी.एन. मदन की परंपरा-आधुनिकता की बहस के साथ जोड़ा जाए, तो स्पष्ट होता है कि उपभोक्तावाद और नैतिक दिशाहीनता ने विवाह संस्था को उसके मूल मानवीय मूल्यों से विमुख कर दिया है। विवाह अब सहचर्यता नहीं, बल्कि सामाजिक प्रदर्शन और आर्थिक शक्ति का प्रतीक बनता जा रहा है।  नारीवादी दृष्टिकोण से देखें तो दहेज मृत्यु घरेलू हिंसा का सबसे क्रूर रूप है, जहाँ स्त्री की देह, श्रम और उत्तराधिकार पर पितृसत्ता का पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो जाता है। लीला दुबे और मैत्रेयी चौधरी जैसी भारतीय समाजशास्त्रियों ने विवाह और परिवार को स्त्री-अधीनता की प्रमुख संरचनाएँ बताया है, जहाँ असमान शक्ति संबंध स्त्री को निरंतर हाशिये पर धकेलते हैं।  सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी कि मुस्लिम समाज में भी अब मेहर की जगह दहेज की प्रवृत्ति बढ़ रही है, इस तथ्य को उजागर करती है कि यह विकृति अब जाति, वर्ग और धर्म की सीमाओं से परे फैल चुकी है। यह वही चिंता है जिसे डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने विवाह में स्त्री की समानता के अभाव के रूप में रेखांकित किया था।  भारतीय दंड संहिता की धारा 304-बी, 498-ए और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 जैसे सशक्त क़ानूनी प्रावधानों के बावजूद एनसीआरबी के आँकड़े बताते हैं कि दहेज मृत्यु के अनेक मामले कभी दर्ज ही नहीं हो पाते। सामाजिक बदनामी का भय, समझौता-संस्कृति, पंचायत या पारिवारिक दबाव और प्रशासनिक उदासीनता पीड़ित परिवार को मौन रहने के लिए मजबूर कर देती है। परिणामस्वरूप, पीड़िता का मायका अपराधबोध, ऋण और सामाजिक अपमान का बोझ ढोता है, जबकि बच्चे इस हिंसा को सामान्य मानकर आगे की पीढ़ियों तक उसका पुनरुत्पादन करते हैं — जिसे समाजशास्त्र में पीढ़ीगत हिंसा का संचरण कहा जाता है।  ऐसे परिदृश्य में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं — चाहे वह पाठ्यक्रमों में विवाह को संवैधानिक समानता और पारस्परिक सम्मान के मूल्यों से जोड़ने की बात हो, दहेज निषेध अधिकारियों की शीघ्र नियुक्ति और उनके विवरण सार्वजनिक करने का निर्देश हो, या फिर पुलिस और न्यायिक अधिकारियों के लिए संवेदनशीलता प्रशिक्षण कार्यक्रम।  दहेज के विरुद्ध संघर्ष केवल क़ानूनी हस्तक्षेप तक सीमित नहीं हो सकता। यह सामाजिक चेतना के पुनर्निर्माण की माँग करता है। जब तक विवाह एक बाज़ार और स्त्री एक मोल-भाव योग्य वस्तु के रूप में देखी जाती रहेगी, तब तक दहेज मृत्यु भारतीय समाज की सामूहिक नैतिक विफलता का सबसे क्रूर और शर्मनाक प्रतीक बनी रहेगी।

(शिवम् मिश्रा – विनायक फीचर्स)

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक 20 वर्षीय नवविवाहिता की मृत्यु से जुड़े मामले में जो टिप्पणी की, उसने समाज की सामूहिक चेतना को झकझोर कर रख दिया। न्यायालय ने कहा कि वह युवती अपने ससुराल पक्ष के लिए महज़ एक रंगीन टीवी, एक मोटरसाइकिल और 15 हज़ार रुपये के बराबर मूल्य की बनकर रह गई थी। यह टिप्पणी किसी एक अपराध तक सीमित नहीं है, बल्कि उस गहरी सामाजिक विकृति की ओर संकेत करती है जिसमें विवाह जैसी पवित्र संस्था आर्थिक लेन-देन और सौदेबाज़ी का रूप ले चुकी है।

न्यायालय ने दहेज को एक ऐसी ‘क्रॉस-कल्चरल’ सामाजिक बुराई बताया, जो आज उपहारों, रस्मों और सामाजिक अपेक्षाओं की आड़ में क़ानून की परिभाषाओं से फिसल जाती है। यह स्थिति केवल आपराधिक मानसिकता का परिणाम नहीं, बल्कि उस संरचनात्मक हिंसा का प्रमाण है जो भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था में गहराई तक समाई हुई है। यहाँ विवाह अब भावनात्मक या सामाजिक बंधन न रहकर, स्त्री को चल संपत्ति के रूप में आँकने का माध्यम बनता जा रहा है।

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इस संदर्भ में कार्ल मार्क्स के वस्तुकरण सिद्धांत को याद करना प्रासंगिक है, जहाँ मानवीय संबंध भी वस्तुओं की तरह मूल्यांकित होने लगते हैं। साथ ही आंद्रे बेतेई के वर्ग और असमानता संबंधी विश्लेषण यह स्पष्ट करते हैं कि आधुनिक भारत में मध्यवर्गीय आकांक्षाएँ और सामाजिक प्रतिस्पर्धा विवाह को सामाजिक उन्नयन का साधन बना देती हैं।

मैक्स वेबर के ‘स्टेटस ग्रुप’ सिद्धांत और एम.एन. श्रीनिवास की संस्कृतिकरण की अवधारणा यह समझने में मदद करती है कि किस प्रकार निम्न और मध्य जातियाँ उच्च जातीय प्रथाओं की नकल करते हुए दहेज जैसी कुप्रथाओं को अपनाती हैं, ताकि सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त की जा सके। इसका परिणाम यह होता है कि दहेज का दायरा और अधिक व्यापक व गहराता चला जाता है।

यदि दुर्खीम की एनोमी की अवधारणा को टी.एन. मदन की परंपरा-आधुनिकता की बहस के साथ जोड़ा जाए, तो स्पष्ट होता है कि उपभोक्तावाद और नैतिक दिशाहीनता ने विवाह संस्था को उसके मूल मानवीय मूल्यों से विमुख कर दिया है। विवाह अब सहचर्यता नहीं, बल्कि सामाजिक प्रदर्शन और आर्थिक शक्ति का प्रतीक बनता जा रहा है।

नारीवादी दृष्टिकोण से देखें तो दहेज मृत्यु घरेलू हिंसा का सबसे क्रूर रूप है, जहाँ स्त्री की देह, श्रम और उत्तराधिकार पर पितृसत्ता का पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो जाता है। लीला दुबे और मैत्रेयी चौधरी जैसी भारतीय समाजशास्त्रियों ने विवाह और परिवार को स्त्री-अधीनता की प्रमुख संरचनाएँ बताया है, जहाँ असमान शक्ति संबंध स्त्री को निरंतर हाशिये पर धकेलते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी कि मुस्लिम समाज में भी अब मेहर की जगह दहेज की प्रवृत्ति बढ़ रही है, इस तथ्य को उजागर करती है कि यह विकृति अब जाति, वर्ग और धर्म की सीमाओं से परे फैल चुकी है। यह वही चिंता है जिसे डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने विवाह में स्त्री की समानता के अभाव के रूप में रेखांकित किया था।

भारतीय दंड संहिता की धारा 304-बी, 498-ए और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 जैसे सशक्त क़ानूनी प्रावधानों के बावजूद एनसीआरबी के आँकड़े बताते हैं कि दहेज मृत्यु के अनेक मामले कभी दर्ज ही नहीं हो पाते। सामाजिक बदनामी का भय, समझौता-संस्कृति, पंचायत या पारिवारिक दबाव और प्रशासनिक उदासीनता पीड़ित परिवार को मौन रहने के लिए मजबूर कर देती है। परिणामस्वरूप, पीड़िता का मायका अपराधबोध, ऋण और सामाजिक अपमान का बोझ ढोता है, जबकि बच्चे इस हिंसा को सामान्य मानकर आगे की पीढ़ियों तक उसका पुनरुत्पादन करते हैं — जिसे समाजशास्त्र में पीढ़ीगत हिंसा का संचरण कहा जाता है।

ऐसे परिदृश्य में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं — चाहे वह पाठ्यक्रमों में विवाह को संवैधानिक समानता और पारस्परिक सम्मान के मूल्यों से जोड़ने की बात हो, दहेज निषेध अधिकारियों की शीघ्र नियुक्ति और उनके विवरण सार्वजनिक करने का निर्देश हो, या फिर पुलिस और न्यायिक अधिकारियों के लिए संवेदनशीलता प्रशिक्षण कार्यक्रम।

दहेज के विरुद्ध संघर्ष केवल क़ानूनी हस्तक्षेप तक सीमित नहीं हो सकता। यह सामाजिक चेतना के पुनर्निर्माण की माँग करता है। जब तक विवाह एक बाज़ार और स्त्री एक मोल-भाव योग्य वस्तु के रूप में देखी जाती रहेगी, तब तक दहेज मृत्यु भारतीय समाज की सामूहिक नैतिक विफलता का सबसे क्रूर और शर्मनाक प्रतीक बनी रहेगी।

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