Chhath Puja 2025 : लोक आस्था, पौराणिकता और संस्कृति का उजियारा बिखेरता छठ महापर्व

Chhath Mahaparva spreads the light of folk faith, mythology and culture.
 
Chhath Mahaparva spreads the light of folk faith, mythology and culture.
(अंजनी सक्सेना – विभूति फीचर्स)
भारतीय संस्कृति के अनगिनत पर्वों में छठ पूजा वह अद्वितीय पर्व है, जिसमें आस्था, पौराणिकता, लोक संस्कृति और प्रकृति की उपासना का अद्भुत संगम दिखाई देता है। यह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि लोक जीवन का उत्सव है — एक ऐसा पर्व जो धरती, जल, वायु और सूर्य जैसे जीवन के मूल तत्वों को प्रणाम करता है।

आस्था और आत्मीयता का उत्सव

छठ केवल पूजा का पर्व नहीं, बल्कि हमारी पहचान और आत्मीयता का प्रतीक है। यह ग्रामीण जीवन की मिट्टी में बसने वाला, माँ की गोद और घाटों की गूंज में रचा-बसा उत्सव है। इसमें न कोई भेद है, न कोई दिखावा — बस समानता, समर्पण और सामूहिकता की भावना।
इसीलिए इसे “लोक आस्था का महापर्व” कहा गया है, जो ईश्वर भक्ति के साथ-साथ मानवता की एकता का भी उत्सव है।

 पौराणिकता और ऐतिहासिक गहराई

छठ पूजा का धार्मिक पक्ष उतना ही प्राचीन है जितना गूढ़। ऋग्वेद से लेकर स्कंद पुराण तक, सूर्य उपासना का उल्लेख मिलता है। कथा है कि अदिति ने देवताओं और असुरों की रक्षा के लिए सूर्य देव का आवाहन किया था — उसी से उत्पन्न मार्तंड सूर्य की आराधना कालांतर में छठ पूजा के रूप में प्रतिष्ठित हुई।
हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य को “प्राणों का आधार” कहा है। बिना सूर्य के न जीवन संभव है, न प्रकाश। यही कारण है कि छठ केवल पूजा नहीं, बल्कि सूर्य के प्रति कृतज्ञता का भाव है — सूर्य से ऊर्जा, सूर्य से जीवन और सूर्य से संतुलन।

 व्रत और उसका आध्यात्मिक अर्थ

व्रती मानते हैं कि सूर्योपासना से सभी कष्ट दूर होते हैं और जीवन में सुख-समृद्धि आती है। डूबते और उगते दोनों सूर्य को अर्घ्य देना जीवन के हर चरण में संतुलन और प्रकाश का स्वागत करने का प्रतीक है।
यह व्रत केवल शारीरिक तपस्या नहीं, बल्कि मन, आत्मा और प्रकृति के सामंजस्य की साधना है। व्रती महिलाएँ नमक, तेल और मसाले का त्याग करती हैं, भूमि पर सोती हैं और चार दिनों तक तप की भावना में लीन रहती हैं।

 छठ गीतों में बसती है लोक आत्मा

छठ की असली आत्मा इसके लोकगीतों में बसती है। “कांच ही बांस के बहंगिया” और “केरवा जे फरेला घवद से” जैसे गीत जब घाटों पर गूंजते हैं, तो वह सिर्फ संगीत नहीं, बल्कि भक्ति और मातृत्व की धारा बन जाते हैं।
पद्मश्री विंध्यवासिनी देवी, पद्मभूषण शारदा सिन्हा, विजया भारती और मैथिली ठाकुर जैसे कलाकारों ने इन गीतों को लोकजीवन से उठाकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया है।
छठ गीतों की परंपरा भोजपुरी तक सीमित नहीं — मैथिली, अंगिका, वज्जिका, और मगही जैसी बोलियों में भी इसकी अपनी अनूठी मिठास है। “चल चल अरघ के बेरिया” से लेकर “कोपि कोपि बोलेली छठी माई” तक, हर स्वर में भक्ति और सादगी की झंकार है।

सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक एकता

छठ पर्व सामाजिक समानता और सामूहिकता का सजीव उदाहरण है। इस दिन कोई छोटा-बड़ा नहीं होता, सब एक ही पंक्ति में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। यही समरसता छठ की आत्मा है। बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड से लेकर नेपाल तक — हर जगह यह पर्व समाज को जोड़ता है। तालाबों और नदियों के किनारे बने छठ घाट केवल उपासना स्थल नहीं, बल्कि लोक संस्कृति के जीवंत केंद्र हैं।

 परंपरा से वैश्विक पहचान तक

समय के साथ छठ पूजा की लोकप्रियता भारत की सीमाओं से निकलकर विश्वभर में फैल चुकी है। आज लंदन, न्यूयॉर्क, मॉरिशस, फिजी, दुबई और सिंगापुर जैसे शहरों में भी भारतीय समुदाय छठ घाट सजाते हैं।
आधुनिक तकनीक और सोशल मीडिया ने इस उत्सव को वैश्विक पहचान दी है — अब छठ के गीत हडसन नदी और जुहू बीच दोनों जगह गूंजते हैं।

 प्रकृति और भक्ति का संगम

छठ के प्रत्येक प्रतीक में भारतीयता बसती है — मिट्टी का दीपक, गंगाजल, ठेकुआ, केला, नारियल, गन्ना और सूप — सब प्रकृति और स्वदेशी भावना के प्रतीक हैं।
सूर्य के सात घोड़े ऊर्जा के सात रूपों का प्रतीक माने जाते हैं, और छठ व्रत उसी ऊर्जा के संतुलन की साधना है।

 छठ का सार — आस्था, सादगी और सामूहिकता

छठ पूजा वर्ष में दो बार मनाई जाती है — चैत्र शुक्ल षष्ठी और कार्तिक शुक्ल षष्ठी को। कार्तिक मास की छठ सर्वाधिक लोकप्रिय है।
पहले दिन नहाय-खाय, दूसरे दिन खरना, तीसरे दिन संध्या अर्घ्य, और चौथे दिन उषा अर्घ्य — प्रत्येक चरण में वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व निहित है। जब हजारों दीपक घाटों पर जलते हैं, गीतों की ध्वनि गूंजती है और सूर्य की लालिमा जल में झिलमिलाती है, तब वह क्षण केवल दर्शन नहीं, बल्कि परमानंद का अनुभव होता है।
छठ केवल बिहार या उत्तर प्रदेश का नहीं, यह भारत की आत्मा का पर्व है — जहां सादगी, श्रद्धा और सामूहिकता का संगम होता है। जब घाटों पर व्रती गाती हैं  सेई ले शरण तोहार ए छठी मइया, सुनी लेहू अरज हमार...”
तो लगता है जैसे पूरी सृष्टि भक्ति में डूब गई हो।
छठ महापर्व हमें हर वर्ष यह संदेश देता है कि हमारी संस्कृति, हमारी परंपराएँ और हमारी आस्था सूर्य की तरह शाश्वत और उज्ज्वल हैं।

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