बचपन की झिझक: संवाद की ज़रूरत, संकोच नहीं

Childhood hesitation: communication is needed, not hesitation
 
बचपन की झिझक: संवाद की ज़रूरत, संकोच नहीं

डॉ. फ़ौज़िया नसीम शाद | विभूति फीचर्स  :  "जब बच्चा चुप रहता है, तो ज़रूरी है कोई ऐसा हो जो उसकी ख़ामोशी को भी सुन सके।" बच्चों के जीवन में संकोचअक्सर एक अदृश्य दीवार की तरह होता है, जो उनके विचारों, भावनाओं और आत्म-विश्वास को सीमित कर देता है। यह दीवार टूटती है — सिर्फ़ संवाद और समझ से।

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बदलते दौर में बच्चों की झिझक

 

आज हम एक ऐसे युग में हैं जहाँ बच्चे तकनीकी रूप से स्मार्ट और सोशल माने जाते हैं। लेकिन इसके पीछे कई मासूम चेहरे ऐसे भी हैं जो खुद को व्यक्त नहीं कर पाते। ऐसे बच्चों का संकोच अक्सर उनकी आत्म-अभिव्यक्ति और विकास में बाधा बन जाता है।

 बच्चों में संकोच आता कहाँ से है?

संकोच की जड़ें अक्सर छोटी-छोटी घटनाओं में छुपी होती हैं:

  • किसी बात पर हँसी उड़ जाना

  • तुलना की गई बातें

  • माता-पिता या शिक्षक द्वारा बार-बार टोका जाना

  • या वो अज्ञात भय जिसे बच्चा खुद भी समझ नहीं पाता

इन सबका असर उसकी सोच और आत्म-विश्वास पर पड़ता है।

 मनोविज्ञान क्या कहता है?

 

बाल मनोविज्ञान के अनुसार, शर्मीलापन और अंदरूनी असुरक्षा बच्चों के सामाजिक कौशल, भाषाई क्षमता और पढ़ाई में प्रदर्शन को प्रभावित करती है। लेकिन सही मार्गदर्शन से यह स्थिति बदली जा सकती है।

 कैसे करें बच्चों के साथ स्वस्थ संवाद?

4 सरल वैकल्पिक सुझाव:

बच्चों को सिखाएँ:

  1. "गुस्सा आए तो गहरी साँस लो।"

  2. "कुछ देर अकेले बैठकर खुद को समझो।"

  3. "खिलौने को ज़ोर से पकड़ सकते हो, पर किसी को चोट न पहुँचाओ।"

  4. "अपने मन की बात जब चाहो मुझसे कह सकते हो।"

बातचीत कब और कैसे करें?

जब बच्चा शांत हो जाए, तब उसे प्यार से समझाएँ:“गुस्सा आना स्वाभाविक है, लेकिन उसे सही तरह से व्यक्त करना ज़रूरी है।”

यह सेल्फ-रेगुलेशन का पहला पाठ होगा।

इन गलतियों से बचें:

  • गुस्से के जवाब में गुस्सा न दिखाएँ

  • सबके सामने शर्मिंदा न करें

  • “तुम हमेशा ऐसे ही हो” जैसे जुमलों से बचें

  • उसकी भावनाओं को नज़रअंदाज़ न करें

अक्सर सबसे ज़्यादा गुस्सा करने वाला बच्चा भीतर से सबसे असुरक्षित और उपेक्षित होता है।

 

 बच्चों को चाहिए सहारा, न कि सज़ा

 

हमें बच्चों को गुस्सा करना नहीं, बल्कि उसे स्वस्थ और सकारात्मक रूप में व्यक्त करना सिखाना चाहिए। डाँटना नहीं, दिशा देना ज़रूरी है। सज़ा नहीं, समझ और सहानुभूति चाहिए ताकि वो गुस्से की आग में नहीं, रिश्तों की रोशनी में बड़े हों।

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