पुनः दस्तक देता कोरोना : सबक भूले तो संकट फिर सामने

Corona knocks again: If we forget the lessons, then the crisis is again in front of us
 
पुनः दस्तक देता कोरोना : सबक भूले तो संकट फिर सामने 

 (नरेंद्र शर्मा परवाना-विभूति फीचर्स) 

साथियों, महामारी का वह भयावह दौर जब याद आता है, तो रूह कांप जाती है। 2020 की वह सुबहें और शामें, जब पूरे विश्व में सन्नाटा पसरा था, मानवता सांस रोककर जी रही थी।  
जब कोरोना ने दस्तक दी, तब केवल भारत ही नहीं अमेरिका, इटली, ब्राजील, स्पेन, चीन, रूस जैसे विकसित और विकासशील देश भी घुटनों पर आ गए। स्वास्थ्य व्यवस्था ध्वस्त हो गई, अर्थव्यवस्थाएं लड़खड़ा गईं और इंसान की जिंदगी ठहर सी गई थी। लाखों लोग इस अदृश्य दुश्मन के शिकार बने।

कोई देश नहीं बचा इस संकट से चाहे अमेरिका की उन्नत चिकित्सा हो या इटली की अनुशासित व्यवस्था, ब्राजील का खुलापन हो या भारत की विविधता सब कुछ इस अदृश्य राक्षस के आगे निष्क्रिय हो गया। अस्पतालों में बिस्तर नहीं थे, श्मशानों में लकड़ियां कम पड़ गईं, और दिलों में उम्मीदें सूखती चली गईं।

 यह सिर्फ वायरस नहीं था यह एक वैश्विक चेतावनी थी। 

इस त्रासदी के बीच कई कहानियां अनकही रह गईं, कुछ बेहद निजी तो कुछ बेहद जनसामान्य। मेरे मित्र राजेन्द्र वर्मा खुबडू, एक संवेदनशील कार्टूनिस्ट, भी इस पीड़ा से गुज़रे। उनकी पत्नी कोरोना पीड़ित नहीं थीं, लेकिन देशभर में मेडिकल संसाधनों की अफरातफरी और असंवेदनशील व्यवस्था के कारण उन्हें उचित इलाज नहीं मिल पाया। उन्हें देखना पड़ा अपनी जीवन संगिनी को अस्पताल की बेरुखी के बीच दम तोड़ते हुए। यह उनकी नहीं, हजारों-लाखों की कहानी है, जो आंसुओं से नहीं, आंकड़ों में दर्ज की गई।

 पर क्या हमने इन आंकड़ों से सबक लिया? शायद नहीं। 

आज, पांच साल बाद, कोरोना फिर लौट आया है नए वेरिएंट, नए लक्षण और फिर वही पुरानी लापरवाहियां। वैज्ञानिकों ने चेताया है कि यह वेरिएंट तेज़ी से फैलता है, लक्षण कुछ अलग हैं, पर खतरा अब भी मौजूद है। मीडिया में ‘डरने की जरूरत नहीं’ के सुकून भरे वाक्य गूंज रहे हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि सतर्कता की जरूरत अब और भी ज्यादा है।

हम भूल गए हैं कि यह सिर्फ एक बीमारी नहीं, संपूर्ण जीवनशैली की परीक्षा है। पिछली बार इसने दुनिया की आर्थिक नब्ज पर प्रहार किया था। लाखों नौकरियां गईं, मानसिक स्वास्थ्य संकट में आ गया, बच्चे स्कूल से दूर हुए और माता-पिता मोबाइल की स्क्रीन में बच्चों का भविष्य पढते रह गए। शरीर ही नहीं, समाज भी बीमार पड़ा था।

आज फिर वही द्वार खुल रहा है। पर इस बार हमारे पास अनुभव है, विज्ञान की समझ है, और सबसे बढ़कर, विकल्प हैं। मास्क पहनना, हाथ धोना, भीड़ से बचना, स्वास्थ्य जांच कराना यह सब दिखावे की नहीं, जीवन की ज़रूरतें हैं।

हमारे विभागों की आदत है बाढ़ आने के बाद नावों की मरम्मत करना। पर हमें यह आदत नहीं अपनानी।

अपने घर में बच्चों को आदत डालें, खाने से पहले हाथ धोने की, सर्द-ठंडी चीज़ों से दूरी रखने की, खांसी-बुखार को नज़र अंदाज़ न करने की। यह सब छोटे कदम हैं, पर यही बचाव की दीवार बनाते हैं।

 उपसंहार में यही कहना चाहूँगा 

इस बार न रोए कोई राजेन्द्र। इस बार इलाज से न हारे कोई इंसान। हम अगर जागरूक रहें, तो कोरोना दोबारा इतिहास बन जाएगा वर्तमान नहीं।

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