क्या गांधी चाहते तो भगत सिंह को फांसी से बचा सकते थे?
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई ऐसे क्षण आए, जिन्होंने देश की दिशा और सोच को हमेशा के लिए बदल दिया। उन्हीं में से एक सबसे भावनात्मक और विवादास्पद प्रश्न यह है – क्या महात्मा गांधी चाहते, तो भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी से बचाया जा सकता था?
23 मार्च 1931: एक ऐतिहासिक और दर्दनाक दिन
इस दिन लाहौर जेल में तीन युवा क्रांतिकारियों—भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु—को फांसी दी गई। इन तीनों ने भारत की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। वहीं दूसरी ओर, महात्मा गांधी उस समय ब्रिटिश सरकार के साथ गांधी-इरविन समझौते को लेकर वार्ता कर रहे थे। यही वह बिंदु है, जहां इतिहासकार और आमजन यह सवाल उठाते हैं कि क्या गांधी इन युवाओं को बचाने के लिए कुछ कर सकते थे?
स्वतंत्रता संग्राम के दो रास्ते: अहिंसा बनाम क्रांति
1920 और 1930 के दशक में आजादी की लड़ाई दो रास्तों पर चल रही थी:
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महात्मा गांधी के नेतृत्व में एक ओर कांग्रेस और अहिंसक आंदोलन जैसे नमक सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन आदि थे।
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वहीं दूसरी ओर, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारी युवाओं ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के माध्यम से हथियारबंद क्रांति की राह पकड़ी।
1929 में, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की केंद्रीय विधानसभा में बम फेंका, जिससे किसी को नुकसान नहीं पहुंचा, लेकिन संदेश बहुत बड़ा था—ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती।
भगत सिंह को फांसी और गांधी की भूमिका
7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर षड्यंत्र केस में फांसी की सजा सुनाई गई। उसी समय गांधी लॉर्ड इरविन से बातचीत कर रहे थे, जिसके परिणामस्वरूप 5 मार्च 1931 को गांधी-इरविन समझौता हुआ। यह समझौता सविनय अवज्ञा आंदोलन को समाप्त करने और राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में भाग लेने से संबंधित था।
तो क्या गांधी ने भगत सिंह की फांसी रोकने की कोशिश की?
हां, उन्होंने प्रयास किए, लेकिन परिणाम सकारात्मक नहीं रहे।
आइए, तथ्यों के आधार पर उनके प्रयासों को समझें:\
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पत्राचार
गांधी ने 17 मार्च 1931 को लॉर्ड इरविन को पत्र लिखकर फांसी को स्थगित करने की अपील की। उन्होंने लिखा कि यदि इन युवाओं की सजा को कम किया जाता है, तो जनता में शांति और सद्भावना का माहौल बन सकता है। -
गांधी-इरविन वार्ता:
गांधी ने राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग की थी, लेकिन भगत सिंह का नाम औपचारिक समझौते में शामिल नहीं था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि गांधी ने उनका मुद्दा अलग से उठाया, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उसे अस्वीकार कर दिया। -
आखिरी प्रयास:
23 मार्च की सुबह, फांसी से कुछ घंटे पहले गांधी ने फिर से एक पत्र के माध्यम से अंतिम अपील की, लेकिन लॉर्ड इरविन का जवाब था कि "यदि भगत सिंह माफी माँगें, तो हम सजा पर पुनर्विचार कर सकते हैं", जिसे भगत सिंह ने ठुकरा दिया।
गांधी की सीमाएं और कारण
1. विचारधारा का विरोधाभास
गांधी अहिंसा के सिद्धांत पर अडिग थे, जबकि भगत सिंह ने हिंसक प्रतिरोध का मार्ग चुना था। गांधी उनकी बहादुरी के प्रशंसक तो थे, लेकिन उनके तरीकों से असहमत थे।
2. ब्रिटिश सरकार का अड़ियल रवैया
लॉर्ड इरविन भगत सिंह को "ब्रिटिश सत्ता के लिए खतरा" मानते थे। वह किसी भी हाल में फांसी रोकने को तैयार नहीं थे।
3. राजनीतिक रणनीति और दबाव
गांधी पूरे देश के लिए स्वराज की राह तैयार कर रहे थे। इस प्रक्रिया में उन्हें कई जटिलताओं और संतुलनों से गुजरना पड़ रहा था। उनका मानना था कि यदि फांसी की माफी की शर्त पर भगत सिंह झुकते नहीं हैं, तो बातचीत का कोई फायदा नहीं होगा।
फांसी के बाद की प्रतिक्रियाएं
भगत सिंह की फांसी ने देशभर में आक्रोश फैलाया। कई लोगों ने गांधी को दोषी ठहराया कि उन्होंने उन्हें बचाने के लिए जोर नहीं डाला। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी अपने समाचार पत्र में इस पर सवाल उठाया था कि "क्या गांधी की प्राथमिकता केवल स्वराज थी, न कि क्रांतिकारियों की सुरक्षा?" हालांकि, कुछ इतिहासकार मानते हैं कि गांधी ने जो किया, वह उस समय के राजनीतिक माहौल में उनकी अधिकतम सीमा थी।
