गाय, गोविंद और गौशाला : संस्कृति से समृद्धि की ओर मध्यप्रदेश की नई पहल

Cow, Govind and Gaushala: Madhya Pradesh's new initiative from culture to prosperity
 
Cow, Govind and Gaushala: Madhya Pradesh's new initiative from culture to prosperity
(लेखक : पवन वर्मा – विनायक फीचर्स)
भारत की सभ्यता केवल मिट्टी में नहीं, बल्कि उस चेतना में रची-बसी है जो करुणा, सहअस्तित्व और संवेदनशीलता को जीवन का सार मानती है। इस चेतना का सबसे सशक्त प्रतीक गाय रही है — जो केवल एक पशु नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति, ग्रामीण जीवन और धर्म की आत्मा है। खेतों की हरियाली से लेकर लोकगीतों की धुन तक, हर जगह गाय का स्नेहिल स्पर्श दिखाई देता है।
ऋग्वेद में कहा गया है— “गावो विश्वस्य मातरः”, अर्थात गाय समस्त विश्व की माता है। यह वाक्य केवल धार्मिक भाव नहीं, बल्कि सहअस्तित्व और पोषण की सार्वभौमिक भावना का उद्घोष है। भारतीय चिंतन में गाय केवल पालन का साधन नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन का केंद्र रही है — जो संतुलन, सेवा और त्याग की भावना को मूर्त रूप देती है।
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मध्यप्रदेश : परंपरा और नीति का संगम

मध्यप्रदेश इस सांस्कृतिक विरासत का जीवंत उदाहरण बन चुका है। नर्मदा की पवित्रता, मालवा की मिट्टी और बुंदेलखंड के लोकगीतों में ‘गौ’ और ‘गोविंद’ की भावना सहज रूप में झलकती है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के नेतृत्व में राज्य सरकार ने इस परंपरा को नीति के केंद्र में स्थापित किया है। उन्होंने गाय को केवल श्रद्धा का विषय न मानकर, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के स्थायी स्तंभ के रूप में देखा है।
‘गौशाला विकास, गोवर्धन पूजा, और गोपालन संवर्धन योजना’ जैसी पहलें इसी दूरदर्शी सोच का प्रमाण हैं, जहाँ आस्था को नीति से और संस्कृति को अर्थव्यवस्था से जोड़ा गया है।
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परंपरा से नीति तक की यात्रा

पहले गोवर्धन पूजा घर-आँगन का धार्मिक उत्सव थी, पर आज यह सामूहिक संकल्प और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक बन चुकी है। 21–22 अक्टूबर 2025 को राज्यभर में मनाया गया यह पर्व इस बात का प्रमाण है कि शासन और संस्कृति में कोई विभाजन रेखा नहीं होनी चाहिए।
मुख्यमंत्री डॉ. यादव ने गोवर्धन पर्व को राज्यव्यापी स्वरूप देकर गौशालाओं को ग्रामीण अर्थव्यवस्था का केंद्र घोषित किया — यह निर्णय न केवल सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि प्रशासनिक दूरदर्शिता का भी उदाहरण है।
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ग्रामीण आत्मनिर्भरता का नया मॉडल

मध्यप्रदेश की गौशालाएँ अब केवल गायों के आश्रय स्थल नहीं रहीं; वे ग्रामीण नवाचार और आत्मनिर्भरता के मॉडल बन चुकी हैं।
गोबर और गौमूत्र आधारित जैविक खेती
वर्मी कम्पोस्ट और पंचगव्य उत्पाद
गोबर गैस संयंत्रों के माध्यम से ऊर्जा उत्पादन
इन पहलों ने गाय को कृषि, पर्यावरण और उद्योग के बीच सेतु बना दिया है। यह परिवर्तन केवल आर्थिक नहीं, बल्कि दार्शनिक पुनर्जागरण है — जो बताता है कि विकास का अर्थ दोहन नहीं, संवर्धन है।
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गोवर्धन पूजा : धर्म से नीति तक

अब गोवर्धन पूजा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं रही, बल्कि यह लोक नीति और सामाजिक साझेदारी का मंच बन गई है। जब शासन, समाज, किसान, महिलाएँ और विद्यार्थी एक साथ इस पर्व में सम्मिलित होते हैं, तो यह आयोजन धर्म और विकास के संगम का प्रतीक बन जाता है।
यह “सांस्कृतिक जननीति” का उत्कृष्ट उदाहरण है — जो दिखाती है कि आस्था और प्रशासन साथ-साथ चल सकते हैं।
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पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास की दिशा
‘गोपालन संवर्धन योजना’ के तहत पंचगव्य आधारित उद्योग, जैविक उत्पाद और ऊर्जा उत्पादन जैसी पहलें ग्रामीण भारत की पारंपरिक आत्मनिर्भरता को आधुनिक रूप में पुनर्जीवित कर रही हैं।
कई गौशालाओं में गोबर गैस संयंत्रों से न केवल ऊर्जा का स्थानीय उत्पादन हो रहा है, बल्कि ईंधन और बिजली की बचत से ग्रामीण समुदाय की आय भी बढ़ी है। यह वही दृष्टिकोण है जहाँ धर्म नीति बनता है और नीति धर्म का विस्तार करती है।
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संवेदनशील शासन की पहचान

इतिहास साक्षी है कि जब शासन अपने सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ा रहता है, तब विकास और स्थिरता दोनों संभव होते हैं। गाय संरक्षण केवल योजना नहीं, बल्कि संवेदनशील शासन का प्रतीक है।
मुख्यमंत्री डॉ. यादव द्वारा गौशालाओं को नीति का केंद्र बनाना यह दर्शाता है कि विकास केवल निर्माण नहीं, बल्कि सभ्यता की आत्मा की रक्षा भी है। अथर्ववेद का श्लोक “गोभिः प्रजाः सुवृता भवन्ति” इसी नीति में मूर्त रूप लेता दिखता है।
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भारतीयता की जड़ें और आधुनिकता का संतुलन

गाय की सेवा भारतीय जीवनदर्शन की वह परंपरा है जो मनुष्य और प्रकृति के सह-अस्तित्व पर आधारित है। आज जब दुनिया ‘सस्टेनेबिलिटी’ की बात करती है, तब भारत का यह दृष्टिकोण आधुनिक विकास का भारतीय उत्तर बन सकता है।
गाय, गौशाला और गोवर्धन पूजा इस विचार के उदाहरण हैं कि परंपरा अतीत का बोझ नहीं, बल्कि भविष्य का पथप्रदर्शन है। ग्रामीण भारत में अब युवा पीढ़ी समझ रही है कि गोबर संसाधन है, गौमूत्र औषधि है, और गाय पर्यावरण की प्रहरी है।
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धर्म और विकास का समन्वय

स्कंदपुराण का वाक्य “गावो मां पातु सर्वतः” केवल धार्मिक प्रार्थना नहीं, बल्कि सामाजिक कल्याण का सूत्र है। मध्यप्रदेश ने इस सिद्धांत को अपनाकर यह सिद्ध किया है कि धर्म और नीति विरोधी नहीं, पूरक हैं।
जब शासन नीति में लोककल्याण, करुणा और संवेदना को जोड़ता है, तब प्रशासन सेवा का रूप ले लेता है — और यही संवेदनशील शासन की सच्ची परिभाषा है।
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संस्कृति से समृद्धि तक

21वीं सदी के भारत के लिए विकास और पर्यावरण का संतुलन सबसे बड़ी चुनौती है। मध्यप्रदेश का ‘गौशाला मॉडल’ इस संतुलन का भारतीय समाधान प्रस्तुत करता है।
जैविक खाद, पंचगव्य औषधियाँ, गोबर गैस संयंत्र और पशुधन आधारित उद्योग न केवल आर्थिक विकास को गति देते हैं, बल्कि प्रदूषण घटाकर पर्यावरण संरक्षण भी सुनिश्चित करते हैं। यही वह मॉडल है जहाँ संस्कृति विकास को दिशा देती है और विकास संस्कृति को पोषण।

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