दीपावली: आंतरिक अंधकार और बाह्य आडंबर—'श्री' की वास्तविक गरिमा का अभ्युदय कब?

Deepavali: Inner darkness and outer pomp—when will the true dignity of 'Shri' emerge?
 
दीपावली: आंतरिक अंधकार और बाह्य आडंबर—'श्री' की वास्तविक गरिमा का अभ्युदय कब?

(उमेश कुमार साहू द्वारा एक गहन विश्लेषण)

हर वर्ष दीपावली के आगमन पर भारत माता उस नए प्रकाश पुंज की प्रतीक्षा करती है, जो केवल घरों और आँगनों को ही नहीं, बल्कि देश की सौ करोड़ से अधिक संतानों के मन-आँगन को भी आलोकित कर सके। हजारों साल पुराने इस ज्योति पर्व पर देश की दीवारें तो जगमगा उठती हैं, लेकिन माटी के ये दीप आज के इंसान के आंतरिक अंधकार को पूरी तरह से प्रकाशित नहीं कर पाए हैं। असत्य पर सत्य की विजय के अभिनंदन और समृद्धि की कामना का यह पर्व, आज उपभोक्तावाद और अपसंस्कृति के आक्रमण के कारण सामाजिक विवेक के माथे पर चिंता की रेखाएँ उकेर रहा है।

रूढ़ि और राष्ट्रीय स्मृति-लोप

दीपावली के आगमन से पूर्व लोग साफ-सफाई, खील-बताशे, दीये और पटाखों की खरीदारी में व्यस्त हो जाते हैं। लक्ष्मी पूजा के लिए तस्वीरें खरीदी जाती हैं, लेकिन आज ऐसे घर कम बचे हैं जहाँ दीपावली की पूजा में उचित विधि-विधान अपनाया जाता हो, या जहाँ लोग पर्व के वास्तविक कर्म को समझते हों।

आधुनिक भौतिकवाद और सांस्कृतिक प्रलोभनों ने त्योहारों को मात्र देखा-देखी और रूढ़ि के अलावा कुछ नहीं रहने दिया है।

  • शोर और भोंडापन: देश में समृद्धि जिस अनुपात में बढ़ रही है, यह त्यौहार उतना ही शोर-शराबे भरा, भोंडा और अश्लील बनता जा रहा है। बेशुमार खरीददारी, दिखावटी पार्टियाँ और जबरदस्त चकाचौंध को देखकर वास्तविक दीपक आज आंसू बहाकर रह जाता है।

  • पूंजीकरण: दीपावली जो देश का सबसे बड़ा त्यौहार है, आज सबसे बड़ी रूढ़ि बन चुकी है। यह राष्ट्रीय स्मृति-लोप का उदाहरण है, जहाँ हम दीए जलाते हैं, पर अंधेरा बढ़ता जाता है। उपभोक्तावाद ने इस पर्व का पूंजीकरण कर दिया है, इसे अब उद्योग के रूप में देखा जाने लगा है।

आंतरिक अंधकार और सामाजिक विसंगति

आतिशबाजी, पटाखे और रोशनी उद्योगों के कारण यह त्यौहार ध्वनि व पर्यावरण प्रदूषण तथा जान-माल की हानि का प्रमुख कारण बन गया है। पटाखों पर खर्च किए गए बेशुमार धन से न जाने कितने ही भूखों का पेट भरा जा सकता है।

परंपरागत लीक में बहते असंख्य दीप जलते तो हैं, किंतु उनकी ज्योति अंतर्मन को प्रकाशित नहीं कर पाती। परिणामस्वरूप:

  • मानसिक विकृति: आंतरिक अंधकार गहराता जाता है, और कुंठित आशाएं मानसिक विकृति की ओर बहती हैं।

  • मूल्यों का पतन: आधुनिकता और भौतिकवाद के दौर में नैतिकता, मर्यादा और मूल्यों का पथ अंधकार में विलीन होता जा रहा है।

  • अशांति और आतंक: इससे उपजी कुंठा व्यक्तिगत जीवन में बिखराव, पारिवारिक कलह और चारों ओर अराजकता, आतंक एवं अशांति के रूप में परिलक्षित हो रही है।

संकट का सामना: शील से प्राप्त लक्ष्मी ही अभीष्ट

अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार और भ्रष्टाचार हर रोज समाज को चुनौती दे रहे हैं। हमें इन जटिल परिस्थितियों का सामना करने के लिए थोड़ी सी समझदारी और ढेर सारे आत्मविश्वास की आवश्यकता है।

ज्योति पर्व तभी हमारे मन और जीवन में करोड़ों दीपों का प्रकाश स्थापित कर पाएगा, जब हम अपने अंदर के अंधकार को साफ कर उसे अकलुष बनाएँ। हमें यह समझना होगा कि देवभूमि भारत और यहाँ की संस्कृति को शील से प्राप्त लक्ष्मी ही अभीष्ट है, न कि अत्याचारों से बनी सोने की लंका।

दीपावली एकता, प्रेम और सद्भावना का पर्व है। लक्ष्मी के विराट स्वरूप को अपने अंतर्मन में बसाना ही वास्तविक आराधना है। जिस दिन हम तृष्णा (लोभ) को त्याग देंगे, मन शांत हो जाएगा।

यह चिंता का विषय है कि राष्ट्र की शान और संस्कृति के गौरव को किस प्रकार बरकरार रखा जाए, जब हमारे अंतर में गहरा अंधकार भरा पड़ा है। यह बाह्य भौतिक प्रकाश उस प्रकाश तक कभी नहीं ले जा पाएगा जिसका अर्थ "तमसो मा ज्योतिर्गमय" (अंधकार से प्रकाश की ओर) वाक्य में निहित है।

दीपावली का उद्देश्य तभी सार्थक होगा जब हम दरिद्रता के अंधकार में जी रहे लोगों के घरों और दिलों में प्रकाश की एक किरण भी जला पाएँ।

आइए, हम सभी एक-एक दीप प्रज्वलित करें ताकि उत्सव में प्रेम और उत्साह का समन्वय हो, और श्री के साथ आंतरिक गरिमा का अभ्युदय हो।

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