सहभोज पर चर्चा : राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक
(सुधाकर आशावादी – विनायक फीचर्स) बचपन से ही यह सुनते आए हैं कि सहभोज से मेल-मिलाप बढ़ता है, गरीब–अमीर का भेद मिटता है और सामाजिक समरसता को बल मिलता है। एक साथ बैठकर भोजन करने से न केवल स्वाद द्विगुणित हो जाता है, बल्कि मन भी प्रसन्न होता है। सहभोज को अब तक हमने सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक माना है।

लेकिन समय के साथ सहभोज का अर्थ बदलता प्रतीत हो रहा है—विशेषकर राजनीतिक क्षेत्र में। आज सहभोज किसी की नींद हराम करने का कारण भी बन सकता है। यह अब केवल सामाजिक सौहार्द का विषय नहीं रहा, बल्कि राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए ‘जोखिम कारक’ बनता जा रहा है।
यदि आप किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े हैं, तो सहभोज का आयोजन करते समय अत्यधिक सावधानी आवश्यक हो गई है। अपने घर में मित्रों को आमंत्रित करना या उनके साथ बैठकर चाय-पान करना अब सहज और स्वाभाविक व्यवहार नहीं रह गया है। कुछ अलिखित नियमों का पालन न करने पर जीवन भर के समर्पित आचरण पर प्रश्नचिह्न लग सकता है। यह बात मैं नहीं कह रहा—अख़बारों की सुर्खियाँ और ई- मीडिया की रिपोर्टें स्वयं यह कहानी बयान कर रही हैं।
परंपरागत रूप से किसी भी पारिवारिक, सामाजिक, साहित्यिक या सार्वजनिक आयोजन से पहले प्रस्तावना बनती है। आयोजन की कल्पना होती है, उसके औचित्य पर विचार किया जाता है, वरिष्ठों से सलाह ली जाती है और फिर उसे भव्य बनाने के लिए मंथन होता है। इस प्रक्रिया में ऐसे लोग शामिल होते हैं जो आयोजक के मन की बात सुनें, उसका समर्थन करें और उसे आयोजन के लिए प्रेरित करें। इसके बाद विशिष्ट और प्रभावशाली अतिथियों की सूची तैयार की जाती है। यह सब एक व्यक्ति का निजी निर्णय होता है।
लेकिन प्रश्न तब खड़ा होता है जब यही प्रक्रिया किसी राजनीतिक व्यक्ति से जुड़ जाती है। यदि कोई जनप्रतिनिधि—सभासद, विधायक या सांसद—अपने कुछ मित्रों या सहकर्मियों के साथ बैठकर अनौपचारिक बातचीत करना चाहे, या अपने घर चाय पर बुलाना चाहे, तो क्या वह ऐसा अपनी इच्छा से कर सकता है? क्या उसे इसके लिए अनुमति लेनी चाहिए? यह प्रश्न व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके मौलिक अधिकारों से जुड़ जाता है।
ऐसा ही एक प्रसंग सामने आया, जब एक मित्र महोदय ने अपने कुछ साथियों को चाय पर आमंत्रित किया। जिन्हें बुलाया गया, वे आए, खाया-पिया, हँसी-ठहाके लगे। लेकिन जिन्हें नहीं बुलाया गया, उनके माथे पर शिकन उभर आई। सवाल उठने लगे—मेरी मर्जी के बिना किसी को क्यों बुलाया गया? किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को अपने घर में अपने जातिगत या निजी मित्रों को बुलाने का अधिकार कैसे मिल गया? क्या इसके लिए पार्टी हाईकमान से अनुमति ली गई थी?
यहीं से मामला गंभीर हो जाता है। लगता है कि किसी राजनीतिक दल से जुड़ने के बाद व्यक्ति चाहे कितनी भी ऊँचाई पर क्यों न पहुँच जाए, वह स्वतंत्र नहीं रहता। उसे पार्टी हाईकमान की डांट, फटकार और अनुशासनात्मक कार्रवाई की धमकी का सामना करना पड़ सकता है। उसे यह नसीहत दी जाती है कि मिल-बैठकर एकता का प्रदर्शन भी सोच-समझकर किया जाए।
यह स्थिति सोचने पर विवश करती है—व्यक्ति बड़ा है या व्यक्ति से बड़ा हाईकमान? क्या सत्ता की इस राजनीतिक शतरंज में जनप्रतिनिधि केवल राजा का प्यादा है, जिसे जब चाहे बुलाया जाए, डांटा जाए, समझाया जाए? और उसकी आड़ में अन्य जनप्रतिनिधियों में भी भय भर दिया जाए कि बिना सूचना दिए किसी को चाय पर बुलाना भी राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
