Nehru vs Ambedkar : डॉ. भीमराव आंबेडकर से क्यों नफरत करते थे नेहरु

Nehru vs Ambedkar : मौजूदा राजनीतिक परिवेश में डॉ. भीमराव आंबेडकर भारत के सभी राजनैतिक दलों की सबसे बड़ी ज़रूरत हैं. सिर्फ संविधान के ही नहीं, बल्कि राजनीति के भी केंद्र हैं डॉ. आंबेडकर और इसकी सबसे बड़ी वजह है वोट बैंक, दलित वोट बैंक इस वोट बैंक की इतनी ताकत है कि अगर इसे जो भी सियासी दल अपने पाले में लाने में कामयाब रहता है, समझ लीजिए सरकार उसी की बनती है
डॉक्टर अंबेडकर से बेहतर ज़रिया और कोई दूसरा नहीं
चाहे कांग्रेस हो या हो बीजेपी या XYZ कोई भी सियासी दल, सबको दलित वोट बैंक की चाहत रहती है और इसको हासिल करने के लिए डॉक्टर अंबेडकर से बेहतर ज़रिया और कोई दूसरा नहीं है.अभी हाल की ही बात है, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को लेकर एक बयान दिया था. अपने बयान में मोहन यादव ने कांग्रेस पर देश के प्रति डॉ. भीमराव आंबेडकर के योगदान को नकारने के प्रयास का आरोप लगाते हुए कहा कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मन में संविधान निर्माता को लेकर दुश्मनी का भाव उनके निधन के बाद भी कायम रहा.
मुख्यमंत्री मोहन यादव ने ये भी कहा कि डॉ आंबेडकर ने जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करके अपने जीवन में ऊंचा मुकाम हासिल किया था जिससे नेहरू घबरा गए. नेहरू अपने पिता की विरासत के बलबूते पर आगे बढ़े थे, लेकिन वो भारत की जड़ों से नहीं जुड़े थे. चुनावों में आंबेडकर का नाम लेकर वोट मांगने से पहले कांग्रेस को अपने वो सारे पाप याद करने चाहिए जो उसने अतीत में उनके साथ अन्याय के रूप में किए थे. कांग्रेस को इन पापों के लिए माफी मांगनी चाहिए.अंबेडकर को लेकर कांग्रेस पर लगाए गए मोहन यादव के इन सभी आरोपों में कितनी हकीकत है, चलिए अपनी रिपोर्ट में हम जानने की कोशिश करते हैं.
आजादी के बाद जब पहली बार 1952 में लोकसभा के चुनाव हुए
देखिए अगर हम अतीत में जाएं तो हमें ये जानने को मिलता है कि आजादी के बाद जब पहली बार 1952 में लोकसभा के चुनाव हुए तो बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर कांग्रेस पार्टी छोड़ चुके थे.संविधान को बनाने में बड़ी भूमिका निभाने वाले बाबासाहेब आजादी के बाद बनी पंडित नेहरू की अगुआई वाली अंतरिम सरकार में विधि एवं न्याय मंत्री थे. हालांकि नीतिगत फैसलों को लेकर उनकी पंडित नेहरू से अनबन हो गई और इसके बाद उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया एक साल बाद ही लोकसभा के चुनाव होने थे ऐसे में बाबसाहेब ने शेड्यूल कास्ट्स फेडरेशन यानी अनुसूचित जाति संघ को नए सिरे से मजबूत करने का विचार किया.
बाबासाहेब ने 1942 में ही इस संगठन का गठन किया था लेकिन आजादी के संघर्ष और फिर संविधान निर्माण में व्यस्तता के चलते वो इस संगठन को ज़्यादा मजबूत नहीं कर पाए थे.1952 के चुनाव में शेड्यूल कास्ट्स फेडरेशन के बैनर तले अपने 35 प्रत्याशी उतार दिए और खुद भी बॉम्बे उत्तर सीट से मैदान में उतर पड़े.कांग्रेस ने उनके ही पीए रहे नारायण सादोबा काजरोलकर को उनके खिलाफ चुनाव में उतार दिया.बाबासाहेब दलितों के बड़े नेता था. ऐसे में माना जा रहा था कि अपनी सीट वो जीत लेंगे.हालांकि चुनाव परिणाम हैरान करने वाले थे.
नारायण काजरोलकर दूध का कारोबार करते थे.राजनीति में वो नए-नए आए थे. वो डॉ. आंबेडकर के पीए के तौर पर भी काम कर चुके थे.वहीं कांग्रेस को आंबेडकर के खिलाफ किसी दलित की ही तलाश थी.नारायण काजरोलकर भी अनुसूचित जाति से थे. चुनाव के परिणाम आए तो डॉ. भामराव आंबेडकर चुनाव हार गए थे. इस सीट पर कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा ने भी अपने प्रत्याशी उतारे थे. दो साल बाद 1954 में बंडारा लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए.इस सीट पर भी डॉ. आंबेडकर को हार का सामना करना पड़ा था.
बाबासाहेब आंबेडकर को हार का सामना करना पड़ गया
नारायण काजरोलकर चुनाव जीतने के बाद पिछड़ा आयोग के सदस्य भी बने. नारायण काजरोलकर डॉ. आंबेडकर के ही संगठन में सचिव रह चुके थे. बाद में काजरोलकर को 1970 में पद्म भूषण भी दिया गया. काजरोलकर ने बाबासाहेब आंबेडकर को 15 हजार वोटों से हराया था. काजरोलकर के समर्थन में पंडित नेहरू ने खूब जनसभाएं की थीं. सवाल ये था कि अगर बाबासाहेब जीत जाते हैं तो राजनीति में एक नया मोर्चा खड़ा हो जाएगा. वहीं उस वक्त पंडित जवाहरलाल नेहरू की लोकप्रियता बहुत थी इसलिए बाबासाहेब आंबेडकर को हार का सामना करना पड़ गया.
अमूमन कहा जाता है कि आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, भीमराव आंबेडकर को पसंद नहीं करते थे. इतिहास के पन्नों में कई ऐसे किस्से हैं जो इस बात का साक्ष्य देते हैं.आइए जानते हैं उन किस्सों के बारे में जो इस बात का साक्ष्य देते हैं कि नेहरू आंबेडकर को पसंद नहीं करते थे
देखिए पहली बात तो ये कि आंबेडकर शुरुआत से ही समाज सुधारक के तौर पर उभकर सामने आए, लेकिन ये कांग्रेस के लिए चिंता का कारण था. इन्हीं कारणों से नेहरू ने आंबेडकर को संविधान सभा से दूर रखने की प्लानिंग की थी जिन 296 लोगों को शुरुआती संविधान सभा में भेजा गया था, उसमें आंबेडकर का नाम शामिल नहीं था. उस समय के बॉम्बे के मुख्यमंत्री बीजी खेर ने पटेल के कहने पर सुनिश्चित किया कि आंबेडकर 296 सदस्यीय निकाय के लिए नहीं चुने जाएंगे.
आंबेडकर की भारतीय संविधान सभा की सदस्यता रद्द कर दी गई
जब आंबेडकर बॉम्बे के जरिए संविधान सभा में पहुंचने में नाकामयाब रहे तो उनका समर्थन करने के लिए बंगाल के दलित नेता जोगेंद्रनाथ मंडल सामने आए.उन्होंने मुस्लिम लीग की मदद से आंबेडकर को संविधान सभा में पहुंचायाजिन 4 जिलों के वोटों के जरिए संविधान सभा का हिस्सा बनें वो दुर्भाग्य पूर्ण हिंदू बहुल होने के बावजूद बंटवारे के वक्त पाकिस्तान का हिस्सा बन गए. जिसका अंजाम ये हुआ कि आंबेडकर की भारतीय संविधान सभा की सदस्यता रद्द कर दी गई और वो पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बन गए. पाकिस्तान बनने के बाद भारत में रहे बंगाल के हिस्सों में से दोबारा संविधान सभा के सदस्य चुने गए और संविधान निर्माण में बहुमूल्य सहयोग दिया.
इसके अलावा बाबा साहब अपने भाषण में नेहरू की मुस्लिम तुष्टिकरण वाली नीतियों की बखिया उखेड़ रहते थे... डॉ. आंबेडकर की चिंता शोषितों, वंचितों और समाज के सबसे नीचे पायदान पर खड़े लोगों के लिए थीं लेकिन इसके उलट नेहरू की नीतियाँ मुस्लिम तुष्टिकरण को बढ़ावा दे रही थीं. ऐसे कई मौके आए जब नेहरू ने डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के राजनीति सफर पर न केवल अड़चने पैदा कीं और कई बार उसमें वो कामयाब भी रहे.
बाबा साहेब ने उस दौर में वो मुकाम हासिल किया
तो कुल मिलाकर ऐसी कई घटनाएं हैं जो साबित करती हैं कि कांग्रेस और उसके नेता खासकर नेहरू कभी डॉ. आंबेडकर को मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स में नहीं आने देना चाहते थे. इन तमाम बवंडरों को दूर कर बाबा साहेब ने उस दौर में वो मुकाम हासिल किया, जो किसी दलित नेता के लिए बहुत मुश्किल था. डॉ. आंबेडकर का लक्ष्य सिर्फ एक था- ‘सामाजिक असमानता दूर करके शोषित, वंचितों के मानवाधिकार की प्रतिष्ठा करना।’आज की तारीख में भी डॉ आंबेडकर के इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जद्दोजहद जारी है, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि लेफ्टिस्ट विचारधारा के लोग सामाजिक असमानता को कम करने के बजाय इसे बढ़ावा दे रहे हैं शायद नेहरू की गलतियों से कोई सबक नहीं लिया गया