चुनावी मौसम और ‘घोषणा ग्रंथि’ का चमत्कार
Election season and the miracle of the 'declaration gland'
Mon, 3 Nov 2025

(विवेक रंजन श्रीवास्तव – विनायक फीचर्स)
चुनाव आते ही नेताओं के भीतर एक अद्भुत ग्रंथि सक्रिय हो जाती है – घोषणा ग्रंथि। इस ग्रंथि के जागते ही उन्हें अचानक मंच, माइक्रोफोन और भीड़ सब दिखाई पड़ने लगती है। फिर शुरू होती है घोषणाओं की बौछार। इस बार किसी ने दावा कर दिया – “हर घर को सरकारी नौकरी… डेढ़ करोड़ नौकरी देंगे!” मंच पर तालियाँ पड़ीं, फूल बरसे। पीछे खड़े नेताओं के मन में एक सवाल भी उठा – “इतनी नौकरी लाएँगे कहाँ से?”
बिहार का युवा इस घोषणा पर उत्साहित दिखाई पड़ा — “अब गली-गली दफ्तर होगा, हर घर में अफसर!”
असल में सरकारी विभागों में बचा ही क्या है? फाइलें महीनों तक धूल खाती रहती हैं, बाबू लोग ‘Pending’ को ‘In Progress’ में बदलकर घर चलते बनते हैं। अगर सच में डेढ़ करोड़ नौकरी बनाई गई, तो काम नहीं, काम का अभिनय बाँटना पड़ेगा। कोई कुर्सी संभालेगा, कोई कुर्सी पोंछेगा, और कोई कुर्सी की इन्वेंट्री तैयार करेगा!
जब प्रवक्ता से पूछा गया — “नौकरी कहाँ से आएँगी?”
जवाब बड़ा सीधा था – “नाम बदल दीजिए। चाय बेचने वाला ‘हॉस्पिटैलिटी असिस्टेंट’, माइक उठाने वाला ‘साउंड इंजीनियर’, पोस्टर चिपकाने वाला ‘कम्युनिकेशन डिवीजन ऑफिसर’!”
मतलब, बेरोजगार यूथ खुद को ‘फ्रीलांस अफसर’ घोषित कर सकता है।
जनता भी जानती है कि वादों की उम्र चुनाव तक ही होती है। पर जनता सपना चाहती है, नेता मंच चाहता है, अखबार सुर्खियाँ चाहता है, और चुनाव आयोग तारीख। यही लोकतंत्र का व्यंग्यात्मक संतुलन है।
बिहार में इस घोषणा ने ढाबों से लेकर फेसबुक ग्रुपों तक बहस छेड़ दी है। कोई पूछता है — “पहले वाले वादे का क्या हुआ?” दूसरा जवाब देता है — “वो पहला फेज था, यह दूसरा फेज है!”
अब तो घोषणाओं की लेयरिंग हो गई है — पहले शिक्षा वादा, फिर बेरोजगारी भत्ता, फिर महिलाओं को स्कीम, फिर नौकरी, फिर नौकरी का गारंटी कार्ड, और फिर उसका हेल्पलाइन नंबर। जनता हर कार्ड संभालकर रखती है — उम्मीद में कि शायद किसी दिन पासबुक बन जाए!
राजनीति विज्ञान में अब नया विषय शामिल होना चाहिए — घोषणा शास्त्र।
जहाँ पढ़ाया जाए —
1. जनता के सपनों का मनोविज्ञान
2. वादों की शब्द कला
3. घोषणा के बाद भूल जाने की तकनीक
घोषणा वीर मंच से जितना बोलते हैं, उतना जनता हँसती भी है और उम्मीद भी पाल लेती है। यही लोकतंत्र का कॉमिक ट्विस्ट है।
कल्पना कीजिए, अगर सबको नौकरी मिल गई — तो कौन अफसर रहेगा? कौन चपरासी? हर गाँव में मंत्रालय खुलेगा, खेतों में किसान नहीं, ‘एग्रीकल्चर सुपरवाइज़र’ होंगे और जो काम नहीं करेगा, वह बनेगा रिव्यू कमेटी का चेयरमैन।
असल में भारत का सबसे स्थायी उद्योग है — वादा उद्योग। इसका कोई ऑफ-सीजन नहीं। बड़ी घोषणा आएगी, तब सुर्खियाँ भी बड़ी बनेंगी।
गाँव का एक युवक तो कह रहा था —
“हमको नौकरी नहीं चाहिए, इंटरव्यू का एसएमएस भेज दो… वही फ्रेम करवा लेंगे!”
सरकारी भाषा में यह सब आखिरकार ‘Under Process’ ही रहता है।
फिर भी मंच से जब नेता बोलता है — “हर हाथ को काम मिलेगा!” तो भीड़ में कोई न कोई यह सोच ही लेता है — शायद इस बार सच हो जाए।
तो अगली सभा में जब नेता बोलें — “सबको नौकरी देंगे!”
तो वही सवाल पूछिए —
“क्या वही नौकरी देंगे जो पिछले चुनाव में मिली थी?”
और नेता मुस्कराकर कहेगा — “नहीं, इस बार अपडेटेड वर्ज़न है!”
मतलब चुनावी वादों के भी अब सॉफ्टवेयर अपडेट आने लगे हैं… और जनता डाउनलोड करती रहती है, जब तक मोबाइल में मेमोरी बची रहे।
