सड़कों पर सैलाब, पहाड़ों का प्रकोप: क्या हमारी विकास नीति प्रकृति के साथ युद्ध कर रही है
लेखक: पंकज शर्मा "तरुण" | स्रोत: विनायक फीचर्स
भारत के कई छोटे-बड़े शहर इन दिनों एक अघोषित आपदा से जूझ रहे हैं—बाढ़ और जलभराव। चाहे बात राजधानी नई दिल्ली की हो या आर्थिक नगरी मुंबई, राजस्थान के जोधपुर की हो या हरियाणा के गुरुग्राम की, हर जगह नदियों की तरह बहती सड़कों, डूबते वाहन और गहरे गड्ढों की तस्वीरें मीडिया की सुर्खियां बन रही हैं।
जलजमाव या इंजीनियरिंग की विफलता?
इन हालातों ने न केवल शहरों की आधारभूत संरचना की पोल खोल दी है, बल्कि सरकारी योजनाओं और ठेकेदारों की निष्क्रियता को भी उजागर किया है। हाल ही में गुरुग्राम के एक हाइवे पर बीस फीट गहरा और चौड़ा गड्ढा बन गया, जिसमें एक भारी ट्रक गिर गया। सौभाग्यवश चालक की जान बच गई, लेकिन यह घटना एक बड़ा सवाल छोड़ गई—हमारे इंफ्रास्ट्रक्चर का यह हाल किस जिम्मेदारी का संकेत है?
राजस्थान की राजधानी जयपुर की मानसरोवर कॉलोनी में मानसून की पहली बारिश के बाद सड़कों पर बने दस फीट के गड्ढे यह साबित करते हैं कि सड़कों का निर्माण महज कागज़ों तक ही सीमित रहा है। मुंबई में चार से पांच फीट तक पानी भर जाना बताता है कि निर्माण एजेंसियां और सरकारें किस हद तक एक-दूसरे की 'मजबूत' साझेदार हैं।
बारिश के आगे बेबस महानगर
सूरत, वलसाड और अहमदाबाद जैसे शहर पहली ही बारिश में लाचार हो गए हैं। पुल गिरने की घटनाएं, ट्रैफिक जाम, और बहते वाहन अब आम दृश्य बन चुके हैं। जो लोग केवल कमिशन के लिए निर्माण कार्य करते हैं, वे आम जनता की जान जोखिम में डाल रहे हैं।
पहाड़ों में प्रकृति का रौद्र रूप
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में स्थिति और भी भयावह है। नदियों का उफान, भूस्खलन और मकानों का ढहना रोजमर्रा की खबर बन चुकी है। पक्के निर्माण और अवैज्ञानिक ढंग से बनाई गई सड़कें पहाड़ों की प्राकृतिक संरचना को नुकसान पहुँचा रही हैं। यह सब प्रकृति की ओर से चेतावनी है कि अगर अब भी नहीं संभले, तो परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं।
पर्यावरण से छेड़छाड़: एक खतरनाक सौदा
देश के कई हिस्सों में वनों की अंधाधुंध कटाई जारी है। चाहे वो मध्यप्रदेश, असम, छत्तीसगढ़ या कर्नाटक हो, हर जगह विकास की आड़ में जंगलों को नष्ट किया जा रहा है। राजस्थान में सोलर प्लांट लगाने के नाम पर लाखों पेड़ काटे जाने की खबरें भी सामने आई हैं। इससे स्पष्ट है कि हम पर्यावरण को नजरअंदाज कर, केवल विकास की ऊपरी परत पर ध्यान दे रहे हैं।
क्या हम समय रहते चेतेंगे?
अब वक्त आ गया है कि सरकार, प्रशासन और जनप्रतिनिधि मिलकर पर्यावरण विशेषज्ञों की चेतावनियों को गंभीरता से लें। हमें विकास की परिभाषा को फिर से गढ़ना होगा—एक ऐसा विकास जो प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर हो, न कि उसके खिलाफ जाकर।अगर हमने अभी नहीं चेता, तो आने वाली पीढ़ियों को केवल बर्बादी का विरासत सौंपनी पड़ेगी।
