डर से दुस्साहस तक: विवाह संस्था और बढ़ते अपराध – एक सामाजिक विमर्श

From fear to audacity: The institution of marriage and rising crime – a social discussion
 
डर से दुस्साहस तक: विवाह संस्था और बढ़ते अपराध – एक सामाजिक विमर्श

(डॉ. सुधाकर आशावादी – विनायक फीचर्स) कमरे में छिपकली देखकर घबराने वाली, हल्की सी खरोंच पर तिलमिलाने वाली, और समाजिक संकोचवश अपने मन की बात तक न कह पाने वाली लड़कियाँ, आखिरकार इतनी निडर कैसे हो गईं कि वे अपने ही जीवनसाथी की हत्या जैसे संगीन अपराध को अंजाम देने से भी नहीं चूकतीं? आज के समय में यह एक चिंताजनक और चौंकाने वाला सामाजिक परिवर्तन बनकर उभर रहा है।

कहीं किसी महिला ने प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या कर दी, तो कहीं किसी ने भाड़े के हत्यारों से उसका अंत करवा दिया। कोई शव को जंगल में फेंक देती है, तो कोई सीमेंट के ड्रम में छिपाने की कोशिश करती है। कुछ मामले तो इतने विचलित कर देने वाले हैं कि एक महिला ने पति की हत्या के बाद उसके शव पर साँप रखकर उसकी मौत को प्राकृतिक दिखाने का प्रयास किया।

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विवाह संस्था पर उठते सवाल

आज जब विवाह जैसे पवित्र बंधन को धोखा, षड्यंत्र और हत्या से जोड़कर देखा जाने लगा है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज के मूल ढांचे में कोई गहरी दरार पड़ चुकी है। मेघालय में हनीमून पर गए नवविवाहित जोड़े की सोनम नामक पत्नी द्वारा पति राजा रघुवंशी की हत्या का मामला इस मानसिकता का ताज़ा उदाहरण है। यह महज एक व्यक्ति की हत्या नहीं, बल्कि उस विश्वास की हत्या है, जो विवाह के साथ जुड़ा होता है।

वासना, आकर्षण और नैतिक पतन

प्रेम और आकर्षण सामान्य मानवीय भावनाएँ हैं, लेकिन जब ये वासना और स्वार्थ के रूप में सामने आते हैं तो परिवार और समाज की नींव हिलने लगती है। रिश्तों की मर्यादा टूटती है, और आज स्थिति यह हो गई है कि उम्र, संबंध और नैतिकता की सभी सीमाएं पार कर दी गई हैं। कहीं सास अपने दामाद के साथ संबंध में है, तो कहीं भाई-बहन और ससुर-बहू जैसे रिश्ते भी कलंकित हो रहे हैं।

इंदौर के राजा रघुवंशी और मेरठ के सौरभ राजपूत जैसे कई निर्दोष पति केवल इसलिए मारे गए क्योंकि उनकी जीवनसंगिनी सोनम और मुस्कान जैसी पत्नियाँ बेवफ़ा निकलीं। दुर्भाग्यवश, ऐसी सोनम और निकिता अब समाज में सामान्य हो गई हैं, जिनकी बेवफ़ाई का खामियाज़ा मासूम पतियों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ रहा है।

गंभीर सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रश्न

यह स्थिति समाजशास्त्रियों और मनोविज्ञानियों के लिए चिंतन का विषय है। क्या अब विवाह जैसी संस्था का महत्व खत्म होता जा रहा है? क्या नारी सशक्तिकरण का यह अर्थ है कि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए हत्या जैसे अपराधों की भी दोषी न मानी जाए?

हर दिन ऐसी घटनाएँ सामने आ रही हैं, मीडिया इन्हें अपनी तरह से प्रस्तुत करता है, और सोशल मीडिया इन पर बहसों से भर जाता है। लेकिन मूल प्रश्न अब भी अनुत्तरित है — आख़िर समाज में इस तरह के दुस्साहस को बढ़ावा कौन दे रहा है? क्या कानून, नैतिकता और सामाजिक चेतना अब अपराधियों के लिए अप्रभावी होती जा रही हैं?

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