महर्षि वेदव्यास से लेकर एआई युग तक: गुरु की भूमिका आज भी उतनी ही जरूरी

(डॉ. संजय कुमार पाठक – विनायक फीचर्स)
प्राचीन भारतीय परंपरा में महर्षि वेदव्यास ज्ञान, धर्म, नीति और चेतना के संरक्षक माने जाते हैं। उन्होंने न केवल महाभारत जैसे ग्रंथ की रचना की, बल्कि भारतीय संस्कृति की बौद्धिक रीढ़ को भी संगठित किया। गुरु के रूप में उनका स्थान केवल शिक्षण का नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन का भी था। आज जब हम कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के युग में प्रवेश कर चुके हैं, जहाँ ज्ञान मात्र एक क्लिक पर उपलब्ध है, तब यह सवाल उठता है – क्या गुरु की आवश्यकता अब भी है?
ज्ञान से परे बोध की ज़रूरत
AI भले ही विशाल ज्ञान भंडार प्रस्तुत कर दे, लेकिन वह प्रेरणा, दृष्टि और जीवन का मार्गदर्शन नहीं दे सकता। महर्षि वेदव्यास से लेकर AI युग तक की यात्रा में ज्ञान का स्वरूप बदला है, लेकिन बोध और विवेक आज भी गुरु की ही देन है। AI तथ्य दे सकता है, लेकिन सत्य की अनुभूति नहीं। गुरु ही वह शक्ति है जो ज्ञान को दृष्टि में, और दृष्टि को जीवन में परिवर्तित करता है।
शिक्षा की आत्मा से विमुख होती पीढ़ी
1835 में मैकाले की शिक्षा नीति ने भारत के पारंपरिक गुरुकुल तंत्र को कमज़ोर किया और ‘ईईई’ (English, Education, Employment) फार्मूले को बढ़ावा दिया। इससे संस्कारों की जगह डिग्री, और सेवा की जगह करियर ने ले ली। स्वतंत्रता के बाद शिक्षा प्रणाली में न केवल पाश्चात्य प्रभाव बढ़ा, बल्कि जीवनमूल्यों की उपेक्षा भी बढ़ती गई। शिक्षा आज रोजगार का माध्यम बन गई है, और छात्र इसे निवेश मानकर 'रिटर्न' की अपेक्षा करने लगे हैं।
गुरु-शिष्य संबंध: एक आध्यात्मिक संवाद
गुरु-शिष्य परंपरा केवल संस्था नहीं, बल्कि दो चेतनाओं का आत्मिक संबंध है। जब व्यक्ति को अपने अज्ञान का बोध होता है, तब वह एक ऐसे गुरु की तलाश करता है जो उसकी संशयात्मक यात्रा का समाधान दे सके। लेकिन आज छात्र के भीतर श्रद्धा का भाव कम हो गया है, और शिक्षक केवल विषय विशेषज्ञ बनकर रह गए हैं।
शिक्षा केवल ‘टॉपर’ नहीं, नागरिक बनाए
गुरु का कार्य केवल जानकारी देना नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण करना है। शिक्षक वही सच्चा गुरु है जो अपने शिष्यों में मनुष्यता के बीज बोता है। आज का शिक्षा तंत्र प्रतिस्पर्धा में उलझा हुआ है, जहाँ मूल्य, सहनशीलता और विनम्रता जैसे गुण लुप्त होते जा रहे हैं।
तकनीक सहायक है, विकल्प नहीं
AI और डिजिटल टूल्स शिक्षा में सहायक हो सकते हैं, लेकिन वे गुरु का विकल्प नहीं बन सकते। तकनीक दिशा नहीं देती, केवल गति देती है। ऐसे में जब बच्चे शुरू से ही ‘टूल-ड्रिवन’ सोच के आदी हो रहे हैं, तो उनका विश्लेषणात्मक और स्वतंत्र चिंतन क्षीण होता जा रहा है।
गुरु पुनः केन्द्रीय भूमिका में हों
समाज को यह समझना होगा कि शिक्षा विकास का उद्योग नहीं, बल्कि संस्कृति का यज्ञ है। नई शिक्षा नीति में मूल्य-आधारित शिक्षा को व्यवहारिक रूप में लागू किया जाना चाहिए। विद्यालयों और कॉलेजों में गुरु-शिष्य संवाद, चिंतन-गोष्ठियाँ और जीवन-दर्शन आधारित शिक्षा को पुनः महत्व मिलना चाहिए।