डिजिटल युग में लैंगिक समानता: एक अनिवार्य परिवर्तन

Gender equality in the digital age: An inevitable change
 
डिजिटल युग में लैंगिक समानता: एक अनिवार्य परिवर्तन

(इंजी. विवेक रंजन श्रीवास्तव - विभूति फीचर्स)

हर वर्ष 17 मई को विश्व दूरसंचार दिवस मनाया जाता है, जिसकी शुरुआत 1865 में अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ की स्थापना से हुई थी। बीते दशकों में तकनीक ने दूरसंचार के परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया है — टेलीग्राम अब इतिहास बन चुका है, पेजर क्षणिक प्रवास की भांति आया और चला गया, और आज मोबाइल और इंटरनेट ने पूरी दुनिया को जोड़कर एक "डिजिटल ग्राम" बना दिया है।

लेकिन तकनीकी प्रगति तब तक अधूरी है जब तक उसमें महिलाओं और पुरुषों की बराबर भागीदारी सुनिश्चित नहीं होती। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) का अनुमान है कि लैंगिक समानता वाले समाज की GDP में 35% तक की वृद्धि संभव है, फिर भी आज भी विश्व में 37% महिलाएं इंटरनेट से वंचित हैं, और तकनीकी क्षेत्रों में उनका नेतृत्व मात्र 24% तक सीमित है।

डिजिटल लैंगिक विषमता के प्रमुख पहलू

  1. पहुँच की असमानता: महिलाओं के पास पुरुषों की तुलना में 20% कम स्मार्टफोन हैं, जबकि विकासशील देशों में यह अंतर 40% तक पहुँच जाता है।

  2. शैक्षणिक विषमता: STEM विषयों (विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग, गणित) में महिलाओं की भागीदारी 35% से कम है। AI क्षेत्र में तो केवल 22% महिलाएं कार्यरत हैं।

  3. सांस्कृतिक बाधाएँ: कई क्षेत्रों, जैसे अफ्रीका और दक्षिण एशिया में, परिवारों का मानना है कि तकनीकी शिक्षा लड़कियों के लिए आवश्यक नहीं है।

  4. डिजिटल हिंसा: 58% महिलाएं ऑनलाइन उत्पीड़न का शिकार होती हैं, जिससे वे डिजिटल मंचों से दूर हो जाती हैं।

  5. आर्थिक अवरोध: वैश्विक स्तर पर महिलाओं की औसत आय पुरुषों से 20% कम है, जो उनकी तकनीकी संसाधनों तक पहुँच को सीमित करती है।

लैंगिक समानता: केवल अधिकार नहीं, विकास की कुंजी

  • यदि 60 करोड़ महिलाएं इंटरनेट का उपयोग करने लगें, तो वैश्विक अर्थव्यवस्था में $500 बिलियन तक की वृद्धि हो सकती है।

  • लैंगिक विविधता से टीमों में उत्पादकता 41% तक बढ़ सकती है।

  • डिजिटल ज्ञान महिलाओं को स्वास्थ्य, शिक्षा और अधिकारों की जानकारी से जोड़ता है।

समाधान की दिशा में कदम

  1. नीतिगत प्रयास: भारत का DISHA अभियान और केरल का ‘इंटरनेट मौलिक अधिकार’ घोषणा अनुकरणीय उदाहरण हैं।

  2. शिक्षा और प्रशिक्षण: विज्ञान विषयों में छात्रवृत्तियों को बढ़ावा देना और कोडिंग प्रोग्राम जैसे "गर्ल्स हू कोड" को बढ़ाना।

  3. कॉर्पोरेट भागीदारी: गूगल का “Women Techmakers” और माइक्रोसॉफ्ट का “Code Without Barriers” जैसे प्रोग्राम प्रभावी हैं।

  4. सुरक्षित डिजिटल वातावरण: साइबर कानूनों का कड़ाई से पालन और जागरूकता अभियानों की आवश्यकता है।

  5. स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण: ‘डिजिटल दीदी’ अभियान जैसे प्रयास ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बना रहे हैं।

प्रेरक उदाहरण

  • घाना की एस्ट्रिड नानी का “iCode” प्लेटफॉर्म 15,000 लड़कियों को कोडिंग सिखा चुका है।

  • सऊदी अरब में महिलाओं की डिजिटल भागीदारी 2018 से 2023 के बीच 14% से बढ़कर 35% तक पहुँच गई है।

निष्कर्षतः, डिजिटल युग में लैंगिक समानता केवल आदर्श नहीं, बल्कि एक अनिवार्य रणनीति है। जब हर लड़की उपभोक्ता नहीं, बल्कि नवप्रवर्तक बनेगी, तभी हम एक समावेशी डिजिटल समाज की ओर अग्रसर होंगे।

एक राष्ट्र, एक चुनाव: लोकतंत्र का सरल और सशक्त मार्ग

(डॉ. सुधाकर आशावादी - विभूति फीचर्स)

एक लोकतंत्र की शक्ति उसके नागरिकों, चुनाव प्रक्रिया और नीतियों की सादगी में निहित होती है। आज जब देश अक्सर "चुनावी मोड" में रहता है, समय, संसाधनों और धन की भारी बर्बादी होती है। इसी के समाधान के रूप में "एक देश, एक चुनाव" की अवधारणा सामने आई है, जो व्यवस्था को सरल और प्रभावी बना सकती है।

समस्या की जड़

1967 से पहले भारत में लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव एक साथ होते थे। लेकिन राजनीतिक अस्थिरता और क्षेत्रीय दलों के प्रभाव से यह प्रणाली टूट गई, जिससे देश में चुनावों का सिलसिला लगभग लगातार चलता रहता है। इससे न केवल सरकारी मशीनरी थमती है, बल्कि विकास कार्य भी बाधित होते हैं।

वर्तमान स्थिति की चुनौतियाँ

  • राजनीतिक दलों द्वारा आरोप-प्रत्यारोप, झूठे वादे और जातिगत समीकरणों पर आधारित चुनाव।

  • संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के चलते हर सुधार का विरोध।

  • चुनावों पर खर्च बढ़ते जा रहे हैं, जिससे करदाताओं का पैसा फिजूल होता है।

एक साथ चुनाव क्यों आवश्यक है?

  1. समय और संसाधनों की बचत: चुनाव आयोग, प्रशासन और सुरक्षा बलों की ऊर्जा एक साथ खर्च होगी, जिससे बाकी समय विकास कार्यों में लग सकेगा।

  2. आर्थिक कुशलता: अलग-अलग चुनावों की तुलना में समवर्ती चुनावों में खर्च कम होता है।

  3. राजनीतिक स्थिरता: बार-बार चुनावों के कारण आने वाली नीति अस्थिरता समाप्त होगी।

  4. जनता की जागरूकता: एक बार में सभी चुनाव होने से मतदाता ज्यादा जागरूक और संगठित निर्णय ले सकेंगे।

विरोध क्यों होता है?

कुछ क्षेत्रीय और वंशवादी राजनीतिक दल इस प्रणाली के विरोधी हैं, क्योंकि उनका अस्तित्व अक्सर स्थानीय समीकरणों पर निर्भर करता है। एक साथ चुनाव होने पर ये समीकरण ध्वस्त हो सकते हैं, और मतदाता मुद्दों पर आधारित निर्णय देने लगेंगे।

आगे का रास्ता

सभी राजनीतिक दलों को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर इस विचार पर चर्चा करनी चाहिए। "एक देश, एक चुनाव" केवल चुनाव सुधार नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय अनिवार्यता बन गई है। इससे न केवल लोकतंत्र मजबूत होगा, बल्कि समय, श्रम और धन की भी बचत होगी।

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