क्या फिर राजनीति की भेंट चढ़ गई हिन्दी?

Has Hindi once again become a victim of politics?
 
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(लेखक: मुकेश "कबीर", विनायक फीचर्स)
महाराष्ट्र सरकार ने हाल ही में बहुचर्चित तीन भाषा नीति को रद्द कर दिया है। इसका मतलब यह हुआ कि अब महाराष्ट्र में हिन्दी को तीसरी भाषा के रूप में नहीं पढ़ाया जाएगा। इस फैसले को राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे की बड़ी राजनीतिक जीत के तौर पर भी देखा जा रहा है। इस मुद्दे पर विपक्ष की तीखी प्रतिक्रिया और जनमत के दबाव ने फडणवीस सरकार को बैकफुट पर ला खड़ा किया।

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दरअसल, फडणवीस सरकार ने हिन्दी को तीसरी भाषा के रूप में लागू करने की योजना बनाकर एक ऐसी रणनीति अपनाई, जो अंततः खुद उनके लिए ही उलटी पड़ गई। इसे राष्ट्रभाषा प्रेम दिखाने की पहल कहा गया, लेकिन यह सवाल भी सामने आया कि यदि वास्तव में हिन्दी के प्रति इतना प्रेम है, तो उसे तीसरी भाषा क्यों बनाया गया, दूसरी भाषा क्यों नहीं?

सिर्फ महाराष्ट्र में ही क्यों?
यह भी एक बड़ा सवाल है कि हिन्दी प्रेम की यह लहर सिर्फ महाराष्ट्र में ही क्यों दिखाई दी? देश के अन्य राज्यों—जैसे गुजरात, आंध्र प्रदेश या तमिलनाडु—में हिन्दी को लेकर ऐसी कोई पहल क्यों नहीं हुई? भाजपा कई राज्यों में सत्ता में है या रही है, लेकिन हिन्दी को कहीं और प्राथमिकता नहीं दी गई। अगर हिन्दी को वाकई राष्ट्रभाषा माना जाता है, तो फिर इसे पूरे देश में पहली या कम से कम दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए—not just a token gesture in Maharashtra.
चुनावी समीकरण और मराठी अस्मिता
महाराष्ट्र की राजनीति में उत्तर भारतीयों की बड़ी आबादी का प्रभाव है। आगामी नगर निकाय चुनावों को देखते हुए भाषाई मुद्दों पर राजनीति तेज हो गई है। फडणवीस जहाँ हिन्दी के माध्यम से राष्ट्रवाद का संदेश देना चाहते थे, वहीं राज ठाकरे ने इसे मराठी अस्मिता से जोड़ते हुए हिन्दी विरोध के रूप में नहीं, बल्कि "महाराष्ट्र की पहचान" बचाने का मुद्दा बना दिया।
राज ठाकरे ने तीखे सवाल खड़े किए—अगर हिन्दी को बढ़ावा देना है तो गुजरात, बंगाल या आंध्र प्रदेश में यह पहल क्यों नहीं हो रही? सिर्फ महाराष्ट्र ही क्यों निशाने पर है?
नीति में अस्पष्टता और व्यवहारिक चुनौतियाँ
सरकार की नीति स्पष्ट नहीं थी। हिन्दी को तीसरी भाषा के रूप में प्रस्तावित जरूर किया गया था, लेकिन वह भी वैकल्पिक—अनिवार्य नहीं। इतना ही नहीं, हिन्दी पढ़ने के लिए कम से कम 20 विद्यार्थियों का होना ज़रूरी बताया गया। अब कोई बच्चा कैसे 20 अन्य बच्चों को खुद इकट्ठा करेगा, खासकर तब जब वह खुद मुश्किल से स्कूल पहुंच पाता हो?
यह स्थिति बताती है कि सरकार की मंशा सिर्फ प्रतीकात्मक थी, व्यवहारिक नहीं। अगर वास्तव में हिन्दी को बढ़ावा देना था, तो उसे अंग्रेजी की जगह दूसरी भाषा के रूप में अनिवार्य किया जाना चाहिए था।
त्वरित यूटर्न और राजनीतिक चतुराई
जब ठाकरे बंधुओं की संयुक्त सभा की तारीख (5 जुलाई) नजदीक आई, तब तक भाजपा सरकार को एहसास हो गया कि मुद्दा उनके खिलाफ जाता दिख रहा है। ऐसे में राजनीतिक नुकसान से बचने के लिए फडणवीस सरकार ने समय रहते यूटर्न ले लिया।
 क्या हिन्दी का भविष्य राजनीतिक इच्छाशक्ति से तय होगा?
भाषा का सवाल राजनीतिक नहीं होना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि शिक्षा नीति और भाषाई निर्णय अब सियासी समीकरणों के अधीन हो गए हैं। बच्चों को क्या पढ़ाया जाना चाहिए, यह राजनीतिक बहस का विषय नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय नीति का हिस्सा होना चाहिए।
जब तक भारत में एक स्पष्ट, समान और निष्पक्ष भाषा नीति नहीं बनाई जाती, हिन्दी जैसी भाषाओं का समुचित विकास संभव नहीं होगा। अन्यथा, क्षेत्रीय स्वार्थों और राजनीतिक दांवपेंचों में एक दिन अंग्रेज़ी ही देश की "वास्तविक राष्ट्रभाषा" बन जाएगी—और हिन्दी अपने ही देश में हाशिए पर जाती रहेगी।

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