अमर बलिदानी प्रफुल्ल चाकी जिनका सिर काटकर अदालत में पेश किया गया  

Immortal martyr Prafulla Chaki, whose head was cut off, was presented in the court.

Immortal martyr Prafulla Chaki, whose head was cut off, was presented in the court.
कुमार कृष्णन-विनायक फीचर्स)
हमारा देश क्रांतिकारियों की वीरगाथाओं से भरा पड़ा है।प्रफुल्ल चाकी देश के पहले ऐसे युवा और वीर क्रांतिकारी थे, जिन्होंने देश के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। इस युवा क्रांतिवीर ने अंग्रेजों से घिरने पर अपने सिर में गोली मार ली और स्वयं को जीते जी देश के लिए बलिदान कर दिया। 

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में मुजफ्फरपुर का किंग्सफोर्ड बम कांड ख़ासा महत्व रखता है। यह कांड क्रांतिकारियों के अपमान के बदले के रूप में भी चर्चित है। 30 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड बम कांड को प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस द्वारा अंजाम दिया गया था। इसके चलते गुलामी के इतिहास का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मुकदमा अलीपुर बम केस हुआ और बंगाल के क्रांतिकारियों के निर्भीक आत्मोत्सर्ग की क्रांतिकारी विचारधारा पूरे देश में आग की तरह फ़ैल गई।

सन् 1888 में 10 दिसम्बर के दिन जन्मे क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। प्रफुल्ल का जन्म उत्तरी बंगाल के जिला बोगरा के बिहारी गाँव (अब बांग्लादेश में स्थित) में हुआ था। जब प्रफुल्ल दो वर्ष के थे तभी उनके पिता जी का निधन हो गया। उनकी माता ने अत्यंत कठिनाई से प्रफुल्ल का पालन पोषण किया। विद्यार्थी जीवन में ही प्रफुल्ल का परिचय स्वामी महेश्वरानंद द्वारा स्थापित गुप्त क्रांतिकारी संगठन से हुआ और उनके अन्दर देश को स्वतंत्र कराने की भावना बलवती हो गई। इतिहासकार भास्कर मजुमदार के अनुसार प्रफुल्ल चाकी राष्ट्रवादियों के दमन के लिए बंगाल सरकार के कार्लाइस सर्कुलर के विरोध में चलाए गए छात्र आंदोलन की उपज थे।
 वह सन् 1907 का समय था। बंगाल को तत्कालीन लार्ड कर्जन ने विभाजित कर रखा था और मातृभूमि को प्रत्यक्ष माता का स्वरूप मानकर "वन्देमातरम्' गीत से उसकी वन्दना करने वाले युवक और छात्र-दल, जिनके नेता अरविन्द घोष और बारीन्द्र घोष थे, अपना घर-परिवार त्यागकर अंग्रेजों से जूझ रहे थे। 16-17 वर्ष के छात्र अंग्रेजों और उनके पिट्ठू सरकारी अधिकारियों पर प्रहार कर रहे थे। ये नवयुवक 'छात्र-भंडार' खोलकर नगरों में स्वदेश की बनी वस्तुएं बेचते थे और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करते थे।
अरविन्द घोष ने स्वयं ही मिदनापुर के सत्येन्द्र नाथ बसु जैसे युवकों को क्रांति की शिक्षा दी थी। मिदनापुर के मियां बाजार में किराए के मकान में एक अखाड़ा चलता था, जिसमें लाठी, तलवार चलाने के साथ ही बंदूक से लक्ष्य भेद और घुड़सवारी का प्रशिक्षण दिया जाता था। यही अखाड़ा गुप्त क्रांतिकारी समिति के रूप में सक्रिय हुआ।
पूर्वी बंगाल के छात्र आंदोलन में प्रफुल्ल चाकी के योगदान को देखते हुए क्रांतिकारी बारीद्र घोष उन्हें कोलकाता ले आए जहाँ उनका सम्पर्क क्रांतिकारियों की युगांतर पार्टी से हुआ। उन दिनों सर एंड्रयू फ्रेजर बंगाल का राज्यपाल था जिसने लार्ड कर्जन की बंग-भंग योजना को क्रियान्वित करने में भरपूर उत्साह दिखाया था। फलत: क्रांतिकारियों ने इस अंग्रेज को मार देने का निश्चय किया। अरविन्द के आदेश से समिति के यतीन्द्रनाथ बसु, प्रफुल्ल चाकी के साथ दार्जिलिंग गए, क्योंकि वह राज्यपाल वहीं था परन्तु वहां जाकर देखा गया कि राज्यपाल की रक्षार्थ सख्त पहरा है और कोई उसके पास तक पहुंच नहीं सकता।
अतः ये लोग लौट आए और यह योजना सफल नहीं हुई। उसे मारने का दूसरा प्रयास सन् 1907 के अक्तूबर में भी हुआ, जब उसकी रेल को बम से उड़ाने गए अरविन्द घोष के भाई बारीन्द्र घोष, उल्लासकर दत्त, प्रफुल्ल चाकी और विभूति सरकार ने चन्दननगर और मानकुंड रेलवे मार्ग के बीच एक गड्ढा खोदकर उसमें बम रखा, परन्तु वह उस रेल मार्ग से गया ही नहीं। आगे उसी साल 6 दिसम्बर को भी बारीन्द्र घोष, प्रफुल्ल चाकी और दूसरे कई साथियों को लेकर खड्गपुर गए और नारायण गढ़ जाने वाले मार्ग से एक मील दूर खड्गपुर के रेल मार्ग पर एक सुरंग रात के 11-12 बजे के बीच लगायी किन्तु रेल के क्षतिग्रस्त होने पर भी वह राज्यपाल बच गया। 7 नवम्बर, 1908 को भी इसी एंड्रयू फ्रेजर को कलकत्ते के ओवरटून हाल के एक बड़े जलसे में क्रांतिकारी जितेन्द्र नाथ राय ने पिस्तौल से गोली मारने की चेष्टा की, पर 3 बार घोड़ा दबाने पर भी गोली न चलने से वह पकड़े गए और उन्हें 10 वर्ष की सजा मिली।
क्रांतिकारियों को अपमानित करने और उन्हें दण्ड देने के लिए कुख्यात कोलकाता के चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को जब क्रांतिकारियों ने जान से मार डालने का निर्णय लिया तो यह कार्य प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को सौंपा गया। दोनों क्रांतिकारी इस उद्देश्य से मुजफ्फरपुर पहुंचे जहाँ ब्रिटिश सरकार ने किंग्सफोर्ड के प्रति जनता के आक्रोश को भाँप कर उसकी सुरक्षा की दृष्टि से उसे सेशन जज बनाकर भेज दिया था। खुदीराम मुजफ्फरपुर आकर महाता वार्ड स्टेट की धर्मशाला में दुर्गादास सेन के नाम से और प्रफुल्ल चाकी दिनेशचंद्र राय के छद्म नाम से ठहरे। दोनों ने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का बारीकी से अध्ययन किया एवं 30 अप्रैल 1908 ई० को किंग्सफोर्ड पर उस समय बम फेंक दिया जब वह बग्घी पर सवार होकर यूरोपियन क्लब से बाहर निकल रहा था।
पर दुर्भाग्य से उस बग्घी में मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी क्लब से घर की तरफ़ आ रहे थे। उनकी बग्घी का लाल रंग था और वह बिल्कुल किंग्सफ़ोर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी। खुदीराम बोस तथा उनके साथी प्रफुल्ल चाकी ने उसे किंग्सफ़ोर्ड की बग्घी समझकर ही उस पर बम फेंक दिया था। देखते ही देखते बग्घी के परखचे उड़ गए और उसमें सवार मां बेटी दोनों की मौत हो गई। दोनों क्रांतिकारी इस विश्वास से भाग निकले कि किंग्सफ़ोर्ड को मारने में वे सफल हो गए।
जब प्रफुल्ल और खुदीराम को ये बात पता चली कि किंग्सफोर्ड बच गया और उसकी जगह गलती से दो महिलाएं मारी गई तो वो दोनों दुखी और निराश हुए और दोनों ने अलग अलग भागने का विचार किया। खुदीराम बोस तो मुज्जफरपुर में पकडे़ गए और उन्हें इसी मामले में 11 अगस्त 1908 को फांसी हो गयी। उधर प्रफुल्ल चाकी जब रेलगाड़ी से भाग रहे थे तो समस्तीपुर में एक पुलिस वाले को उन पर शक हो गया और उसने इसकी सूचना आगे दे दी। जब इसका अहसास प्रफुल्ल को हुआ तो वो मोकामा रेलवे स्टेशन पर उतर गए पर तब तक पुलिस ने पूरे मोकामा स्टेशन को घेर लिया था।
1 मई 1908 की सुबह मोकामा में रेलवे की एक पुलिया पर दनादन गोलियाँ चल रही थी। जो लोग उस समय वहां रेलवे स्टेशन पर अपनी अपनी गाड़ियों का इन्तजार कर रहे थे, उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था और जिसको जहाँ जगह मिली वहीं छुप गया।
लगभग ढाई घंटे तक उस छोटे से रेल्वे स्टेशन पर गोलियां चलती रही और एक बहादुर जाबांज अपनी छोटी सी रिवाल्वर से उनका मुकाबला करता रहा। अपने आप को चारों ओर से घिरा जानकर भी उसने न तो अपने कदम पीछे खींचे और न ही आत्मसमर्पण किया। अपनी बहादुरी की दम पर उसने लगभग छह अंग्रेज पुलिस वालों को घायल कर दिया। वो लड़ता रहा आखिरी दम तक पर जब उसने देखा कि अब आखिरी गोली बची है और अंग्रेज अभी भी चारों ओर से गोलियाँ चला रहे हैं तो उस तरुण ने माँ भारती को नमन किया। अपने आप को भारत माँ के चरणों में कुर्बान करने की कसम तो वो पहले ही ले चुका था पर उसकी आँखों से बहते आंसू ये बयान कर रहे थे कि वह जो अपनी धरती माँ के लिए करना चाहता था, वह अधूरा रह गया। पर उसका संकल्प कि जीते जी कभी भी किसी अंग्रेज के हाथों नहीं आएगा, पूरा होने जा रहा था। उसने अपनी आखिरी गोली को चूमा, वहां की धरती का आलिंगन किया और उस गोली से अपने ही सर को निशाना बना कर रिवाल्वर चला दी। अंग्रेज भी हक्के बक्के रह गए और वहां मौजूद लोगों के मुंह खुले के खुले रह गए।
जब गोलियों की आवाज़ आनी बंद हुई तो लोगों ने देखा कि पुलिया के उत्तर भाग में एक 20-21 साल का लड़का लहूलुहान गिरा पड़ा है और अंग्रेज पुलिस उसे चारों ओर से घेरे हुए है। कोई कुछ समझ पता उससे पहले ही अंग्रेज उस नवयुवक की लाश को अपने कब्जे में लेकर चलते बने। आज़ादी का ये दीवाना कोई और नहीं, प्रफुल्ल चंद चाकी ही थे।
आज़ादी का ये वीर सपूत अपने बलिदान से मोकामा की धरती को भी अमर बना गया। अपने माता पिता की एकमात्र संतान होने के बावजूद चाकी ने देश की खातिर अपने को कुर्बान कर दिया। बिहार के मोकामा स्टेशन के पास प्रफुल्ल चाकी की मौत के बाद पुलिस उपनिरीक्षक एनएन बनर्जी ने चाकी का सिर काट कर उसे सबूत के तौर पर मुजफ्फरपुर की अदालत में पेश किया। यह अंग्रेज शासन की जघन्यतम घटनाओं में शामिल है। चाकी का बलिदान जाने कितने ही युवकों का प्रेरणा स्त्रोत बना और उसी राह पर चलकर अनगिनत युवाओं ने मातृभूमि की बलिवेदी पर खुद को होम कर दिया।
क्रांतिकारी प्रफुल्ल चंद्र चाकी के सम्मान में आजाद भारत में एक स्मारक समिति भी बनी और उसकी ओर से दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में वर्ष 2006 में एक श्रद्धांजलि सभा का भी आयोजन किया गया, जिसमें मोकामा के सांसद की मौजूदगी में चाकी की प्रतिमा के साथ ही उन पर डाक टिकट भी जारी करने की मांग की गई। लेकिन भारत माता के लाड़ले चाकी फिर भी विस्मृत और अबूझ ही बने रहे। उन पर 2010 में डाक टिकट जारी हुआ पर मोकामा में आज तक एक स्मारक भी नहीं बन सका है।
जिस स्थानपर चाकी शहीद हुए, वह जगह आज भी सरकार के कब्जे में है फिर भी वहां चाकी का स्मारक बनाने की अनुमति अब तक क्यों नहीं दी जा सकी है यह विचारणीय प्रश्न है । सत्यता तो यही है कि क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी को सरकारें भले ही भूल जाएं लेकिन आम जन मानस में जब भी क्रांतिकारियों की चर्चा होगी प्रफुल्ल चाकी का नाम सबसे पहले लिया जाएगा।आज उनके जन्मदिन पर पुनः नमन और यह विश्वास कि शायद अब उनकी स्मृतियों को संजोया जाएगा।(विनायक फीचर्स)

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