क्या हमारी थाली अब मिट्टी से नहीं, तेल से भर रही है?

Is our plate no longer being filled with mud, but with oil?
 
तेल पर टिक गई है हमारी खाद्य श्रृंखला IPES-Food की रिपोर्ट "Fuel to Fork" इस बात का खुलासा करती है कि आज की खाद्य प्रणाली मिट्टी नहीं, बल्कि तेल में उगती है। आंकड़े बताते हैं:  वैश्विक खाद्य प्रणाली दुनिया के 40% पेट्रोकेमिकल्स और 15% फॉसिल फ्यूल की खपत करती है।  खाद, कीटनाशक, ट्रांसपोर्ट, कोल्ड स्टोरेज, पैकेजिंग—हर स्तर पर तेल और गैस की निर्भरता है।  नतीजा? खाने की कीमत अब फसल पर नहीं, बल्कि पेट्रोल-डीज़ल की अंतरराष्ट्रीय बाज़ार पर तय होती है।  🚜 खेती में अब मिट्टी से ज्यादा तेल की महक सोचिए एक सामान्य किसान—चाहे वह हरियाणा का हो या बिहार का। जब वह ट्रैक्टर चलाता है, सिंचाई करता है, खाद डालता है—तो उसमें छिपा है तेल का कनेक्शन:  यूरिया और DAP जैसी खादें मुख्य रूप से प्राकृतिक गैस से बनती हैं।  फसल को बाजार तक पहुंचाने वाले ट्रक डीज़ल से चलते हैं।  बाजार में मिलने वाली पैकिंग प्लास्टिक की होती है—जो फिर से तेल से बनती है।  📈 जब तेल महंगा होता है, भूख भी महंगी हो जाती है 2022 याद है? जब पेट्रोल ₹100 पार कर गया था और सब्ज़ियों-दूध के दाम आसमान छूने लगे थे। वही चक्र फिर लौट रहा है। IPES-Food के विशेषज्ञ राज पटेल कहते हैं:  “जब खाद्य प्रणाली तेल पर आधारित हो, तो हर वैश्विक संकट आपकी थाली पर असर डालता है।”  ग्रामीण और शहरी दोनों वर्ग इसकी चपेट में हैं। किसान खाद उधार में खरीदते हैं, और आम उपभोक्ता के लिए मौसमी सब्ज़ियाँ भी अब जेब पर भारी हो रही हैं।  🧪 ‘डिजिटल फार्मिंग’ जैसे समाधान—या एक नया जाल? बाजार में अब ‘स्मार्ट फर्टिलाइज़र’, ‘ब्लू अमोनिया’ और ‘डिजिटल खेती’ जैसे शब्द तैर रहे हैं। लेकिन इन तथाकथित समाधानों के पीछे फिर वही कहानी है—तेल-आधारित टेक्नोलॉजी, बड़े कॉरपोरेट्स का डेटा नियंत्रण, और किसानों को नई तरह की निर्भरता में फंसाना।  🌿 बदलाव की राह—स्थानीय, देसी और टिकाऊ खाद्य प्रणाली इस चुनौतिपूर्ण समय में उम्मीद की किरणें हमारे ही गांवों, आदिवासी इलाकों और लोकल मंडियों से झांकती हैं:  बस्तर की मंडियां, विदर्भ की महिला किसान समूह, और मेघालय के सामुदायिक बागान आज भी जैविक, लोकल और विविध फसलों पर टिके हुए हैं।  ये मॉडल न सिर्फ़ अधिक पोषणयुक्त हैं, बल्कि स्वतंत्र, सामाजिक रूप से न्यायसंगत, और जलवायु के अनुकूल भी हैं।  Georgina Catacora-Vargas, IPES-Food की विशेषज्ञ कहती हैं:  "फॉसिल फ्यूल-मुक्त खाद्य प्रणाली कोई सपना नहीं है, वह भारत के देसी समुदायों में आज भी जीवंत है।"  🤔 क्या COP30 में भोजन भी एजेंडा बनेगा? जब दुनिया जलवायु परिवर्तन की चर्चा में कार्बन क्रेडिट, नेट जीरो और इलेक्ट्रिक गाड़ियाँ जैसे विषयों में उलझी रहती है, क्या खाद्य प्रणाली को भी केंद्रीय मुद्दा बनाया जाएगा?  या फिर भोजन को सिर्फ़ एक ‘उप-प्रश्न’ मानकर छोड़ दिया जाएगा, जबकि सच्चाई ये है कि तेल आधारित भोजन ही जलवायु और भूख दोनों संकटों की जड़ में है।  🍽️ अब वक़्त है खाने को तेल से नहीं, मिट्टी से जोड़ने का हमारी थाली को फॉसिल फ्यूल से आज़ादी चाहिए। और यह आज़ादी दे सकती है:  देशज बीजों की वापसी  स्थानीय मंडियों का पुनर्जीवन  प्राकृतिक खेती को बढ़ावा  और हमारी थाली की सादगी
क्या आपने कभी सोचा है कि आपकी थाली में परोसा गया सादा भोजन भी दरअसल कितना "तेल-निर्भर" है? यहाँ बात सरसों के तेल या घी की नहीं हो रही—मुद्दा है उस कच्चे तेल (क्रूड ऑयल) का, जिसने अब पूरी खाद्य प्रणाली को अपने कब्जे में ले लिया है। इज़राइल-ईरान जैसे अंतरराष्ट्रीय संघर्ष अब केवल भू-राजनीति तक सीमित नहीं रहे, बल्कि हमारी रसोई की कीमतें भी इन्हीं तनावों से तय हो रही हैं।

तेल पर टिक गई है हमारी खाद्य श्रृंखला

IPES-Food की रिपोर्ट "Fuel to Fork" इस बात का खुलासा करती है कि आज की खाद्य प्रणाली मिट्टी नहीं, बल्कि तेल में उगती है। आंकड़े बताते हैं:वैश्विक खाद्य प्रणाली दुनिया के 40% पेट्रोकेमिकल्स और 15% फॉसिल फ्यूल की खपत करती है।खाद, कीटनाशक, ट्रांसपोर्ट, कोल्ड स्टोरेज, पैकेजिंग—हर स्तर पर तेल और गैस की निर्भरता है।नतीजा? खाने की कीमत अब फसल पर नहीं, बल्कि पेट्रोल-डीज़ल की अंतरराष्ट्रीय बाज़ार पर तय होती है।

 खेती में अब मिट्टी से ज्यादा तेल की महक

सोचिए एक सामान्य किसान चाहे वह हरियाणा का हो या बिहार का। जब वह ट्रैक्टर चलाता है, सिंचाई करता है, खाद डालता है—तो उसमें छिपा है तेल का कनेक्शन:

  • यूरिया और DAP जैसी खादें मुख्य रूप से प्राकृतिक गैस से बनती हैं।

  • फसल को बाजार तक पहुंचाने वाले ट्रक डीज़ल से चलते हैं।

  • बाजार में मिलने वाली पैकिंग प्लास्टिक की होती है—जो फिर से तेल से बनती है।

 जब तेल महंगा होता है, भूख भी महंगी हो जाती है

2022 याद है? जब पेट्रोल ₹100 पार कर गया था और सब्ज़ियों-दूध के दाम आसमान छूने लगे थे। वही चक्र फिर लौट रहा है। IPES-Food के विशेषज्ञ राज पटेल कहते हैं:“जब खाद्य प्रणाली तेल पर आधारित हो, तो हर वैश्विक संकट आपकी थाली पर असर डालता है।” ग्रामीण और शहरी दोनों वर्ग इसकी चपेट में हैं। किसान खाद उधार में खरीदते हैं, और आम उपभोक्ता के लिए मौसमी सब्ज़ियाँ भी अब जेब पर भारी हो रही हैं।

 ‘डिजिटल फार्मिंग’ जैसे समाधान या एक नया जाल?

बाजार में अब ‘स्मार्ट फर्टिलाइज़र’, ‘ब्लू अमोनिया’ और ‘डिजिटल खेती’ जैसे शब्द तैर रहे हैं। लेकिन इन तथाकथित समाधानों के पीछे फिर वही कहानी है—तेल-आधारित टेक्नोलॉजी, बड़े कॉरपोरेट्स का डेटा नियंत्रण, और किसानों को नई तरह की निर्भरता में फंसाना।

 बदलाव की राह स्थानीय, देसी और टिकाऊ खाद्य प्रणाली

इस चुनौतिपूर्ण समय में उम्मीद की किरणें हमारे ही गांवों, आदिवासी इलाकों और लोकल मंडियों से झांकती हैं:बस्तर की मंडियां, विदर्भ की महिला किसान समूह, और मेघालय के सामुदायिक बागान आज भी जैविक, लोकल और विविध फसलों पर टिके हुए हैं। ये मॉडल न सिर्फ़ अधिक पोषणयुक्त हैं, बल्कि स्वतंत्र, सामाजिक रूप से न्यायसंगत, और जलवायु के अनुकूल भी हैं। Georgina Catacora-Vargas, IPES-Food की विशेषज्ञ कहती हैं: "फॉसिल फ्यूल-मुक्त खाद्य प्रणाली कोई सपना नहीं है, वह भारत के देसी समुदायों में आज भी जीवंत है।"

 क्या COP30 में भोजन भी एजेंडा बनेगा?

जब दुनिया जलवायु परिवर्तन की चर्चा में कार्बन क्रेडिट, नेट जीरो और इलेक्ट्रिक गाड़ियाँ जैसे विषयों में उलझी रहती है, क्या खाद्य प्रणाली को भी केंद्रीय मुद्दा बनाया जाएगा? या फिर भोजन को सिर्फ़ एक ‘उप-प्रश्न’ मानकर छोड़ दिया जाएगा, जबकि सच्चाई ये है कि तेल आधारित भोजन ही जलवायु और भूख दोनों संकटों की जड़ में है।

 अब वक़्त है खाने को तेल से नहीं, मिट्टी से जोड़ने का

हमारी थाली को फॉसिल फ्यूल से आज़ादी चाहिए। और यह आज़ादी दे सकती है:

  • देशज बीजों की वापसी

  • स्थानीय मंडियों का पुनर्जीवन

  • प्राकृतिक खेती को बढ़ावा

  • और हमारी थाली की सादगी

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