एक जनवरी बनाम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा , कालबोध का द्वंद्व या एक सांस्कृतिक धर्मयुद्ध
A conflict of time perception or a cultural religious war
(पवन वर्मा – विनायक फीचर्स)
किसी भी जीवंत राष्ट्र के लिए ‘नववर्ष’ केवल कैलेंडर की एक तारीख नहीं होता, बल्कि वह उसकी सामूहिक चेतना, जीवन-दृष्टि और प्रकृति के साथ उसके तादात्म्य का उद्घोष होता है। भारतवर्ष में कालबोध कभी भी यांत्रिक नहीं रहा। यह सदैव ब्रह्मांडीय, प्राकृतिक और आध्यात्मिक रहा है।

किन्तु वर्तमान कालखंड की विडंबना यह है कि भारतीय समाज अपने सनातन कालबोध से विमुख होकर एक जनवरी को नववर्ष के रूप में अंगीकार कर बैठा है, जबकि सृष्टि के नव-सृजन का पर्व चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विस्मृति के गर्त में धकेला जा रहा है। यह केवल दो तिथियों का संघर्ष नहीं, बल्कि स्वबोध और परानुकरण के बीच छिड़ा हुआ एक गहन सांस्कृतिक धर्मयुद्ध है।
एक जनवरी : औपनिवेशिक दासता और परकीय कालबोध
एक जनवरी को मनाया जाने वाला नववर्ष ग्रेगोरियन कैलेंडर पर आधारित है, जिसकी जड़ें पूर्णतः पाश्चात्य सभ्यता में हैं। भौगोलिक और प्राकृतिक दृष्टि से देखें तो भारत में यह समय प्रकृति की सुप्त अवस्था का होता है। कड़ाके की ठंड, कोहरा और जड़ता चारों ओर व्याप्त रहती है।
न तो ऋतु परिवर्तन का संकेत मिलता है, न वृक्ष-वनस्पतियों में किसी नवजीवन का स्पंदन। भारतीय कृषि परंपरा, नक्षत्र-विज्ञान अथवा आध्यात्मिक चेतना से इस तिथि का कोई तार्किक संबंध नहीं है। यह औपनिवेशिक शासन की देन थी, जिसे प्रशासनिक सुविधा के नाम पर हम पर थोपा गया।
दुखद यह है कि स्वतंत्रता के दशकों बाद भी इस तिथि को नववर्ष के रूप में स्वीकार करना हमारी मानसिक पराधीनता का स्पष्ट प्रमाण है। आज यह दिवस आत्मचिंतन या संकल्प का नहीं, बल्कि दिशाहीन उल्लास, उन्मुक्त भोग और मदिरा-पान का पर्याय बन चुका है। यह हमारी सांस्कृतिक जड़ों को भीतर से खोखला कर रहा है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा : सृष्टि के नव-यौवन का उत्सव
भारतीय कालगणना में नववर्ष का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है। यह वह समय है जब प्रकृति स्वयं अपने नवयौवन का उत्सव मनाती है। वसंत ऋतु अपने चरम पर होती है। वृक्षों से पुराने पत्ते झर जाते हैं और नई कोंपलें फूट पड़ती हैं। खेतों में फसल पककर तैयार होती है, जो किसान के परिश्रम की सार्थकता का प्रतीक है।
शास्त्रों के अनुसार, इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का सृजन किया था। यही दिन विक्रम संवत के आरंभ का भी है, जो सम्राट विक्रमादित्य के शौर्य, स्वाभिमान और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक है। वैज्ञानिक और खगोलीय दृष्टि से भी यह काल अत्यंत महत्वपूर्ण है। सूर्य और चंद्रमा की स्थिति में होने वाला परिवर्तन मानव शरीर और मन में नई ऊर्जा का संचार करता है। यही कारण है कि यह पर्व देशभर में विभिन्न रूपों में मनाया जाता है—कश्मीर में नवरेह, दक्षिण भारत में उगादी, महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा और सिंध समाज में चेटीचंड के रूप में। यह संपूर्ण भारत को एक सांस्कृतिक सूत्र में पिरोता है।
विस्मृति का संकट : स्वधर्म का क्षरण
यह संघर्ष केवल तिथि बदलने का नहीं, बल्कि चेतना बदलने का है। जब कोई राष्ट्र अपने पर्व, अपनी परंपराएं और अपनी कालगणना को भूलकर दूसरों के मापदंडों को श्रेष्ठ मानने लगता है, तो वह धीरे-धीरे अपनी आत्मा खो देता है।
एक जनवरी को नववर्ष मानना, अनजाने में ही सही, यह स्वीकार करना है कि हमारी अपनी वैज्ञानिक और प्राकृतिक परंपराएं हीन हैं। यह सांस्कृतिक विस्मृति एक गंभीर संकट है। यदि नई पीढ़ी को यह ज्ञात ही नहीं होगा कि उसका वास्तविक नववर्ष कब और क्यों मनाया जाता है, तो वह अपनी जड़ों से कटे उस वृक्ष की भांति हो जाएगी, जो किसी भी वैचारिक आंधी में धराशायी हो सकता है।
चेतना के धर्मयुद्ध का आह्वान
यह सांस्कृतिक धर्मयुद्ध अस्त्र-शस्त्रों का नहीं है। यह युद्ध स्मृति और विस्मृति, स्वबोध और आत्म-विस्मरण के बीच है। आवश्यकता एक जनवरी का विरोध करने की नहीं, बल्कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को उसका खोया हुआ गौरव लौटाने की है।हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारा नववर्ष केवल कैलेंडर की एक तारीख न होकर, जीवन के नवनिर्माण का संकल्प बने। परकीय कालबोध के अंधानुकरण से मुक्त होकर हमें अपनी सनातन सांस्कृतिक चेतना का संवाहक बनना होगा। जिस दिन भारत का जनमानस चैत्र प्रतिपदा को उसी उत्साह, गौरव और आत्मीयता के साथ मनाएगा, उसी दिन इस सांस्कृतिक धर्मयुद्ध में हमारी वास्तविक विजय होगी। यही समय है आत्मचिंतन और प्रत्यावर्तन—अर्थात् अपनी जड़ों की ओर लौटने का।
