जयंती/होली
धर्म के नाम पर पाखण्ड, आडम्बर, व्यभिचार और कुरीतियां फैल रही थीं। देश में भीषण द्वेष, भय व आतंक का वातावरण छाया हुआ था ऐसे में विक्रम संवत की सोलहवीं शताब्दी के मध्य फाल्गुन माह की पूर्णिमा को एक दिव्य बालक का जन्म हुआ। इस बालक का परिजनों द्वारा 'निमाई' नामकरण किया गया। निमाई बचपन से ही चंचल तथा अत्यन्त मेधावी थे, प्रबल मनोविनोदी थे। उनके यौवनकाल में पं. रघुनाथ जी द्वारा न्याय शास्त्र पर एक ग्रन्थ लिखा गया था। निमाई द्वारा भी एक ग्रन्थ न्याय शास्त्र पर तैयार किया गया था।
उन्होंने अपनी हस्तलिखित कृति को जब पं. रघुनाथ जी को पढऩे के लिए प्रस्तुत किया तो उनके नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली। तुलनात्मक दृष्टिकोण पर उन्होंने स्पष्ट किया कि निमाई का ग्रन्थ अति उत्तम है। निमाई समझ गए कि उनके ग्रंथ के समक्ष पंडित जी का ग्रंथ उपयोगी नहीं रह पाएगा। अत: उन्होंने पंडित जी के ग्रंथ की महिमा बढ़ाने के लिए अपना हस्तलिखित ग्रंथ स्वयं ही गंगा में प्रवाहित कर दिया। उनके इस त्याग ने उनके व्यक्तित्व को प्रखर बनाया। उनका ज्ञान दिनोंदिन बढ़ता रहा। उनका उपदेश था कि जीव मात्र के प्रति दया, भगवान के प्रति आस्था एवं मनुष्य मात्र की सेवा ये ही तीन श्रेष्ठ धर्म हैं।
