कंगना रनौत और बुजुर्ग की वायरल वीडियो: सांसद की जिम्मेदारी पर उठे सवाल, जानिए पूरा मामला
कहां का है मामला?
यह घटना हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के बंजार इलाके की है। जानकारी के अनुसार, कंगना अपने संसदीय क्षेत्र मंडी के दौरे पर थीं, तभी एक 80 वर्षीय बुजुर्ग व्यक्ति उनसे मिलने पहुंचे। वीडियो में देखा जा सकता है कि बुजुर्ग जमीन पर बैठकर कंगना से अपनी समस्या साझा कर रहे हैं। बताया जा रहा है कि वह पार्वती परियोजना से प्रभावित हैं और अपनी बात केंद्र सरकार तक पहुंचाना चाहते थे। उन्होंने कंगना से कहा, “आपके पास ताकत है, कृपया हमारी आवाज़ प्रधानमंत्री तक पहुंचाइए।”
कंगना का जवाब और सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया
इस बातचीत के दौरान कंगना ने जवाब दिया, “यह मुख्यमंत्री का काम है। सुक्खू जी से संपर्क करें, मुझे मुख्यमंत्री की जिम्मेदारियां मत समझाइए।” उन्होंने यह भी कहा कि वह केंद्रीय मंत्री मनोहर लाल खट्टर से बुजुर्ग को मिलवाने की कोशिश करेंगी।हालांकि, उनका यह जवाब सोशल मीडिया यूज़र्स को नागवार गुज़रा। कई लोगों ने इसे असंवेदनशील और ठंडा बताया। कुछ यूज़र्स ने सवाल उठाया कि जब जनता ने उन्हें वोट देकर सांसद चुना है, तो उनका यह कहना कि "यह मेरा काम नहीं" कितना जायज़ है? एक यूज़र ने लिखा, “कम से कम वह बुजुर्ग ज़मीन पर तो नहीं बैठते। उन्हें कुर्सी दी जानी चाहिए थी।” जबकि कुछ ने कहा कि यह सत्ता के अहंकार का प्रतीक है।
समर्थन में भी आए लोग
जहां एक तरफ आलोचना हो रही है, वहीं कुछ लोग कंगना के पक्ष में भी खड़े दिखे। उनका मानना है कि एक सांसद की कुछ सीमित जिम्मेदारियां होती हैं और हर प्रशासनिक काम उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। उनके अनुसार कंगना ने वास्तविकता बताई, क्योंकि परियोजना से संबंधित मुद्दे राज्य सरकार या स्थानीय प्रशासन के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
कंगना की सफाई
इस विवाद के बाद कंगना ने भी अपनी सफाई दी। उन्होंने कहा कि सांसद के पास न तो कैबिनेट होती है और न ही कार्यकारी अधिकारी। उनकी शक्तियां सीमित होती हैं, लेकिन उन्होंने भरोसा दिलाया है कि वो बुजुर्ग की मदद करने की पूरी कोशिश करेंगी।उन्होंने यह भी याद दिलाया कि हाल ही में उन्होंने मंडी में बाढ़ प्रभावित इलाकों का दौरा किया और पीड़ितों को राहत पहुंचाने का आश्वासन दिया।
सांसद बनने पर कंगना का बयान
गौरतलब है कि कुछ दिनों पहले एक इंटरव्यू में कंगना ने राजनीति को लेकर अपना अनुभव साझा करते हुए कहा था कि उन्हें सांसद बनकर कोई खास आनंद नहीं आ रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि जब बीजेपी ने उन्हें टिकट दिया था, तब यह कहा गया था कि साल में सिर्फ 60-70 दिन काम करना होगा। लेकिन अब उन्हें यह "महंगा शौक" लगने लगा है, जहां संसाधन सीमित हैं और अपेक्षाएं असीमित।
असली सवाल क्या है?
इस पूरी घटना ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है—क्या हमारे जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति और अधिक संवेदनशील नहीं होना चाहिए? क्या एक बुजुर्ग को ज़मीन पर बैठाने के बजाय सम्मानपूर्वक कुर्सी नहीं दी जानी चाहिए थी, चाहे मामला किसी भी स्तर का हो?
