करवा चौथ और अहोई अष्टमी: आस्था के पर्व और बदलती सामाजिक प्रासंगिकता

Karwa Chauth and Ahoi Ashtami: Festivals of Faith and Changing Social Relevance
 
Karwa Chauth and Ahoi Ashtami: Festivals of Faith and Changing Social Relevance

(डॉ. सुधाकर आशावादी -विनायक फीचर्स)  भारतीय संस्कृति में पर्वों का स्थान केवल कैलेंडर की तिथियों तक सीमित नहीं है, बल्कि वे समाज की आत्मा और श्रद्धा में रचे-बसे रहे हैं। हालाँकि, आज भौतिकता का प्रभाव ऐसा है कि पर्वों को श्रद्धा से कम, और दिखावे के लिए अधिक मनाया जाने लगा है।

पति-पत्नी के समर्पित विश्वास को इन पंक्तियों में सार रूप में समझा जा सकता है:

"स्वस्थ दीर्घायु रहूँ मैं यह तुम्हारी कामना है, तन समर्पित मन समर्पित और समर्पित भावना है। है तुम्हारी प्रीत निर्मल मैं हृदय से जानता हूँ, गृहस्थ पथ पर संग चल मैं धन्य जीवन मानता हूँ।"

आधुनिक दाम्पत्य जीवन और करवा चौथ की कसौटी

 

करवा चौथ का पर्व पत्नी के पतिव्रता त्याग, प्रेम और अटूट विश्वास का प्रतीक रहा है, जिसमें महिलाएँ पति के स्वस्थ और दीर्घजीवी होने की कामना करती हैं।

परंतु, वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में इस पर्व की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है।

  • आज नौकरीपेशा पति-पत्नी का दाम्पत्य जीवन अक्सर समझौते पर टिका है।

  • रिश्तों में सामंजस्य के अभाव के चलते विश्वास की डोर कच्ची हो रही है।

  • पारिवारिक न्यायालयों में तलाक के मुकदमों की संख्या में वृद्धि हो रही है, और रिश्तों में कटुता व हिंसा के समाचार भी सामने आ रहे हैं।

ऐसे में, जहाँ दांपत्य जीवन में विश्वास की डोर कच्ची हो रही हो, वहाँ करवा चौथ जैसे पर्व की मूल भावना को बनाए रखना एक चुनौती है। इसके अलावा, इस पर्व का बढ़ता बाज़ारीकरण भी चिंता का विषय है। सुहागन के प्रतीक चिन्हों (मेहंदी, बिंदी, कंगन आदि) को घर में सादगी से अपनाने के बजाय, अब ब्यूटी पार्लरों में महंगे उपचार और श्रृंगार में अधिक समय दिया जा रहा है। पर्व का यह आधुनिकीकरण कहीं न कहीं उसकी आत्मा और सादगी को आहत कर रहा है।

 

अहोई अष्टमी: संतान के दीर्घजीवी होने की कामना

 

पति की दीर्घायु के पर्व करवा चौथ के बाद, संतान के स्वास्थ्य और कल्याण की कामना का पर्व अहोई अष्टमी आता है, जो आज भी अत्यंत प्रासंगिक है।

  • मूल रूप से यह पर्व पुत्र संतान के दीर्घजीवी होने की कामना तक सीमित था।

  • हालांकि, समय के साथ पुत्र और पुत्री में भेद न करने की मानवीय अवधारणा से इसे संतानों (पुत्र व पुत्री दोनों) के दीर्घजीवी होने की कामना का पर्व मान लिया गया है।

  • इस दिन माताएँ अपनी संतानों की लंबी उम्र और सुख के लिए व्रत रखती हैं, जो मातृत्व के निःस्वार्थ प्रेम को दर्शाता है।

 

पर्वों की मूल भावना का सम्मान

इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि भारतीय समाज में पर्वों की एक लंबी शृंखला है, और हर पर्व के मूल में एक सकारात्मक विचार और आत्मीय भावना निहित है। पर्वों को मनाने के तौर-तरीके भले ही बदल रहे हों, लेकिन उनकी मूल भावना का सम्मान करना आवश्यक है। सबसे महत्वपूर्ण है कि पर्व मनाए जाने में अनावश्यक धन के अपव्यय से बचा जाए। पर्वों के आत्मीय स्वरूप और उनकी मूल श्रद्धा को बरकरार रखने का यही एकमात्र तरीका है।

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