हर्ष के दीप

lamp of joy
 
lamp of joy
(इंजी. अरुण कुमार जैन – विभूति फीचर्स)
दीपों का त्योहार दीपावली आने ही वाली थी। हर घर में उत्साह का माहौल था — कहीं रंगोली बन रही थी, कहीं सजावट की तैयारियां जोरों पर थीं। ऑनलाइन ऑर्डर पर मिठाइयाँ, दीपक और सजावटी सामान आने शुरू हो गए थे। कॉलोनी का हर कोना रोशनी और उमंग से जगमगा उठा था।
लेकिन उसी कॉलोनी में रहने वाली सुमन, जो कई घरों में काम करती थी, के चेहरे पर खुशी के बजाय उदासी छाई थी।
घर की बेटी प्रीति ने जब उसकी उदासी देखी, तो पूछा —
“क्या हुआ सुमन दीदी, त्योहार

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सुमन ने धीमी आवाज़ में कहा —

“दीदी, हम लोग हर साल दीपावली से पहले घर में ही नमकीन, मिठाई, सजावट की चीज़ें और दीये बनाते हैं ताकि बेचकर थोड़ा पैसा मिल जाए। लेकिन अब तो सब लोग ऑनलाइन चीज़ें मंगाने लगे हैं। ऐसे में हमारा सामान कौन खरीदेगा? हमारी दिवाली तो फीकी रह जाएगी।”
सुमन की बात सुनकर प्रीति का दिल भर आया। उसे एहसास हुआ कि जिनके बिना उसका घर रोज़ नहीं चल सकता, उनकी खुशियाँ अब ऑनलाइन खरीददारी के साए में खो रही हैं।
प्रीति ने उसी शाम अपनी सभी सहेलियों को वीडियो कॉल पर जोड़ा और कहा —
“जो लोग सालभर हमारी मदद करते हैं, त्योहार की खुशियों में उनका भी हक़ है। अगर हम सच में दीपावली मनाना चाहते हैं, तो हमें उनके जीवन में भी प्रकाश फैलाना चाहिए।”
सभी सहेलियाँ उसकी बात से सहमत हुईं। उन्होंने तय किया कि इस बार वे ऑनलाइन नहीं, बल्कि स्थानीय कारीगरों और कामवालियों से ही खरीदारी करेंगी।
अगले दिन प्रीति ने सुमन को यह संदेश दिया —
“दीदी, इस रविवार कॉलोनी के ग्राउंड में आप सब अपने-अपने बनाए सामान के स्टॉल लगाइए। हम सब सिर्फ आप लोगों से ही दीपावली की खरीदारी करेंगे।”
सुमन के चेहरे पर बरसों बाद सच्ची मुस्कान खिल उठी।
रविवार को कॉलोनी का ग्राउंड एक छोटे से दीपावली मेले में बदल गया। हर ओर सुमन जैसी महिलाओं के स्टॉल सजे थे — कहीं रंगोली, कहीं दीये, कहीं घर की बनी मिठाइयाँ और नमकीन। हर खरीददार के चेहरे पर संतोष था और हर विक्रेता की आंखों में चमकते थे हर्ष के दीप।

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