भाषाई विवाद का समाधान: "एक राष्ट्र, एक संपर्क भाषा" की ओर

लेखक: डॉ. सुधाकर आशावादी | स्रोत: विनायक फीचर्स
भाषा न केवल अभिव्यक्ति का माध्यम है, बल्कि यह सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान का भी प्रतीक होती है। किंतु जब यही भाषा विभाजन और विवाद का कारण बनने लगे, तब इस पर गंभीर विचार आवश्यक हो जाता है।
हाल ही में कर्नाटक की एक बैंक शाखा में कार्यरत महिला प्रबंधक का तबादला केवल इस आधार पर किया गया कि वह ग्राहकों से हिंदी में संवाद कर रही थीं, जबकि वे कन्नड़ भाषा की अपेक्षा कर रहे थे। यह घटना महज़ एक प्रशासनिक निर्णय नहीं है, बल्कि यह देश में बढ़ते भाषाई असंतुलन और असहिष्णुता का संकेत भी है।
स्थानांतरण नीति और भाषाई विविधता
भारत सरकार लंबे समय से "भारत को जानो" नीति के तहत उत्तर और दक्षिण भारत के अधिकारियों का स्थानांतरण एक-दूसरे के क्षेत्रों में करती रही है। इसका उद्देश्य है – राष्ट्रीय एकता को मजबूती देना और विभिन्न क्षेत्रों की सांस्कृतिक समझ को बढ़ावा देना। परंतु जब अधिकारी क्षेत्रीय भाषा नहीं जानते, तो संचार एक चुनौती बन जाता है।
हिंदी भाषी अधिकारी दक्षिण भारत में अक्सर अंग्रेजी के माध्यम से संवाद करते हैं, जबकि दक्षिण भारतीय कर्मचारी हिंदी क्षेत्रों में असहज महसूस करते हैं। ऐसे में, केवल भाषा की जानकारी के आधार पर किसी अधिकारी की योग्यता को नकारना अनुचित है।
भाषा: संवाद का माध्यम, विवाद का कारण नहीं
मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषाएँ स्थानीय स्तर पर निश्चित रूप से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन जब बात राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर की होती है, तो संपर्क भाषा की आवश्यकता महसूस होती है। हर व्यक्ति सभी भाषाएँ नहीं जान सकता – और न ही यह अपेक्षित है। इसलिए, जहां आवश्यक हो, वहां क्षेत्रीय भाषा जानने वालों को वरीयता दी जा सकती है, परंतु यदि कोई अधिकारी एक सामान्य संवाद भाषा का प्रयोग करता है, तो उसे विवाद का कारण नहीं बनाना चाहिए।
विवाद के पीछे की राजनीति
अक्सर भाषाई विवाद वास्तविक से अधिक राजनीतिक होते हैं। वे ऐसे मुद्दों को हवा देते हैं जो राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं। व्यापारिक और प्रशासनिक कार्यों में भाषा शायद ही कोई बाधा बनती हो – वहाँ व्यक्ति की कार्यकुशलता और सेवा भावना अधिक मायने रखती है।
संपर्क भाषा के रूप में हिंदी – एक व्यवहारिक समाधान
भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में यह आवश्यक हो गया है कि एक संपर्क भाषा को मान्यता दी जाए – जो सभी क्षेत्रों में संवाद की सहजता सुनिश्चित करे। हिंदी, जो पहले से ही देश के अधिकांश हिस्सों में बोली और समझी जाती है, इस भूमिका के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। यह ज़रूरी नहीं कि क्षेत्रीय भाषाओं को कमतर आंका जाए – बल्कि उन्हें सहेजते हुए एक "राष्ट्रीय संपर्क भाषा" को स्थापित करना चाहिए। इससे देश में भाषाई संतुलन और एकता बनी रहेगी।