Mahakumbh Special : कुंभ'कांड' 1954 क्या नेहरू ने मचाया क़त्ल-ए-आम?

मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक सबने महाकुंभ पर लाखों अड़चनें लगाने की कोशिश की... लेकिन लोगों की सच्ची श्रद्धा और आस्था के आगे महाकुंभ के दुश्मनों की एक न चली... लोगों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दी, लेकिन कुंभ पर कभी कोई समझौता नहीं किया...
तो जैसा कि हमने आपको बताया कि भारत जब तक गुलाम रहा, तब तक महाकुंभ के आयोजन को लेकर कोई अड़चन नहीं आई, अड़चन तो तब आई जब भारत आज़ाद हो गया और भारत की कमान जवाहरलाल नेहरू के हाथों सौंप दी गई... अब आप सोच रहे होंगे कि जवाहरलाल नेहरू और महाकुंभ को लेकर हम ये कैसी बातें कर रहे हैं... तो इसकी एक मजबूत और ठोस वजह है... इसकी बानगी जानने के लिए हमें इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगे और आपको एक ऐसी दास्तां सुननी होगी जिसे सुनकर आप शायद रो पड़ेंगे...
साल था 1954, भारत को अंग्रेजी हुकूमत से आज़ाद हुए 7 साल हो चुके थे... अब आज़ाद भारत के पहले कुंभ का आयोजन होने जा रहा था... संगम के करीब ही अस्थाई रेलवे स्टेशन बनाया गया था... बड़ी संख्या में टूरिस्ट गाइड अपॉइंट किए गए थे... बुलडोजर से उबड़-खाबड़ जमीनों को दुरुस्त किया गया था... सड़कों पर बिछी रेलवे लाइनों के ऊपर पुल बनाए गए थे... पहली बार कुंभ में बिजली के खंभे लगाए गए थे... 9 अस्पताल भी खोले गए थे, ताकि कोई बीमार पड़े या हादसे का शिकार हो तो उसे फौरन मेडिकल फैसिलिटी मुहैया कराई जा सके... भई, महाकुंभ तो सदियों से चलता चला आया था, लेकिन ये महाकुंभ खास था, क्योंकि आज़ाद भारत का पहला महाकुंभ था, और उसी के मुताबिक ही सारी तैयारियां की गईं थीं...
खैर, कुंभ में 40-50 लाख लोगों के शामिल होने का अनुमान था... भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के साथ-साथ भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी कुंभ पहुंचने वाले थे... राजेंद्र प्रसाद ने तो महीने भर संगम क्षेत्र में कल्पवास किया था... कल्पवास को आप ऐसे समझ सकते हैं कि संगम के किनारे रहकर वेदों का अध्ययन करना, ध्यान करना, और पूजा करना... ये एक कठिन साधना होती है... कल्पवास के दौरान, भक्त भौतिक सुखों का त्याग कर संन्यास आश्रम की तरह जीवन बिताते हैं... सोचिए, ऐसी थी हमारे भारत के पहले राष्ट्रपति की आस्था... लेकिन दूसरी तरफ भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का मामला बहुत अलग था...
हिंदी के एक मशहूर लेखक पीवी राजगोपाल अपनी किताब ‘मैं नेहरू का साया था’ में लिखते हैं कि उस रोज मौनी अमावस्या थी... लाल बहादुर शास्त्री चाहते थे कि पंडित नेहरू प्रयाग जाएं और कुंभ में स्नान करें... लेकिन जवाहरलाल नेहरू कुंभ नहीं आना चाहते थे... लेकिन फिर लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हें समझाया कि इस प्रथा का पालन वो सभी लोग करते आए हैं जो राजगद्दी पर बैठते चले आए हैं... तो मजबूरी में ही सही लेकिन पंडित नेहरू ने महाकुंभ आने की हामी भर दी... लेकिन उन्होंने अपनी शर्तों का पिटारा भी खोल दिया...
नेहरू ने जवाब दिया कि मैंने तय कर लिया है कि महाकुंभ में जा तो रहा हूं लेकिन नहाऊंगा नहीं... पहले मैं जनेऊ पहना करता था, फिर मैंने जनेऊ उतार दिया... ये सच है कि गंगा मेरे लिए बहुत मायने रखती हैं... गंगा भारत में लाखों लोगों के जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन मैं कुंभ के दौरान इसमें स्नान नहीं करूंगा...
राजगोपाल पीवी लिखते हैं कि उस रोज़ सुबह नेहरू नाव में बैठे... उनके परिवार के लोग भी साथ थे... सभी ने संगम में डुबकी लगाई, लेकिन नेहरू ने स्नान तो दूर, खुद के ऊपर गंगा का पानी तक नहीं छिड़का...
खैर, सीनियर फोटो जर्नलिस्ट एनएन मुखर्जी भी इस आज़ाद भारत के पहले कुंभ में मौजूद थे... 1989 में मुखर्जी की आंखों-देखी रिपोर्ट ‘छायाकृति’ नाम की हिंदी मैगजीन में छपी... इसमें मुखर्जी लिखते हैं कि प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद एक ही दिन स्नान के लिए संगम पहुंच गए... ज्यादातर पुलिस और अफसर उनकी व्यवस्था में व्यस्त हो गए... मैं संगम चौकी के पास एक टावर पर खड़ा हुआ था..., करीब साढ़े 10 बजे की बात है... स्नान करने वाले घाट पर बैरिकेड लगाकर हजारों लोगों को रोक दिया गया... आम लोगों के साथ-साथ हजारों नागा साधु, घोड़ा गाड़ी, हाथी, ऊंट सब घंटों इंतजार करते रहे... दोनों तरफ जनसैलाब जम गया... इसी बीच नेहरू और राजेंद्र प्रसाद की कार त्रिवेणी की तरफ से आई और किला घाट की तरफ निकल गई... जब नेहरू और बाकी वीवीआईपी लोगों की गाड़ी गुजर गई, तो बिना किसी योजना के भीड़ को छोड़ दिया गया...
भीड़ बैरिकेड तोड़कर घाट की तरफ जाने लगी... उसी रोड पर दूसरी छोर से साधुओं का जुलूस निकल रहा था... भीड़ और साधु-संत आमने सामने आ गए... जुलूस बिखर गया... बैरिकेड की ढलान से लोग ऐसे गिरने लगे, जैसे तूफान में खड़ी फसलें गिरती हैं... जो गिरा वो गिरा ही रह गया, कोई उठ नहीं सका... चारों तरफ से मुझे बचाओ, मुझे बचाओ की चीख गूंज रही थी... कई लोग तो गहरे कुएं में गिर गए...
फोटो जर्नलिस्ट एनएन मुखर्जी अपनी इस किताब में ये भी लिखते हैं कि मैंने देखा कि कोई तीन साल के बच्चे को कुचलते हुए जा रहा था... तो कोई बिजली के तारों पर झूलकर खुद को बचा रहा था... उसकी तस्वीर खींचने के चक्कर में मैं भगदड़ में गिरे हुए लोगों के ऊपर गिर गया... मेरे अखबार के साथी डरे हुए थे कि मैं भी हादसे का शिकार तो नहीं हो गया... दोपहर करीब 1 बजे मैं दफ्तर पहुंचा, तो अखबार के मालिक ने मुझे गोद में उठा लिया... दरअसल अखबार के मालिक इस बात से डरे हुए थे कि कहीं उनका होनहार फोटोग्राफर भी इस हादसे का शिकार ना हो गया हो... लेकिन उन्हें शायद ये नहीं मालूम था कि उनका ये होनहार फोटोग्राफर जो हादसे की तस्वीर खींचकर अपने साथ लेकर आया है, वो तस्वीरें एक डरावने इतिहास का हिस्सा बन जाएंगी...
जी हां, सरकार ने कहा कि हादसे में कुछ भिखारी ही मरे हैं... सैकड़ों लोगों के मरने की खबर गलत है... तब फोटोग्राफर ने अधिकारियों को हादसे की तस्वीरें दिखाईं, जिसमें महंगे गहने पहनी महिलाएं भी थीं... जो इस बात की गवाही बयां कर रही थीं कि अच्छे बैकग्राउंड वाले लोग भी इस हादसे में कुचलकर मारे गए हैं...
एनएन मुखर्जी ने हादसे की खबर तो छाप दी थी, लेकिन सरकार का दबाव था कि कुछ हुआ ही नहीं... एक पत्रकार के नाते उन्हें इसका सबूत पेश करना था... अगले दिन वो फिर से मेले में पहुंच गए... मुखर्जी ने देखा कि प्रशासन शवों का ढेर बनाकर उसमें आग लगा रहा था... किसी भी फोटोग्राफर या पत्रकार को वहां जाने की इजाजत नहीं थी... चारों तरफ बड़ी संख्या में पुलिस मुस्तैद थी... बारिश हो रही थी... एनएन मुखर्जी एक गांव वाले की वेशभूषा में छाता लिए वहां पहुंचे... उनके हाथ में खादी का झोला था, जिसके अंदर उन्होंने छोटा सा कैमरा छिपाया हुआ था... झोले में एक छेद कर रखा था ताकि कैमरे का लेंस नहीं ढंके...
फोटोग्राफर एनएन मुखर्जी ने पुलिस वालों से रोते हुए कहा कि मुझे आखिरी बार अपनी दादी को देखना है... वो सिपाहियों के पैर पर गिर पड़े... उनसे मिन्नतें करने लगे कि आखिरी बार मुझे दादी को देख लेने दो... एक पुलिस अधिकारी ने उन्हें इस शर्त पर जाने की इजाज़त दी कि वो जल्द लौट आएंगे... वो तेजी से शवों की तरफ दौड़े... अपनी दादी को ढूंढने का नाटक करने लगे... इसी दौरान उन्होंने गिरते-संभलते जलती हुई लाशों की फोटो खींच ली...
खैर, अगले दिन अखबार में जलती हुई लाशों की फोटो छपी... खबर पढ़कर यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत गुस्से से लाल हो गए... उन्होंने पत्रकार को सबक सिखाने की ठानी... पत्रकार के साथ क्या हुआ, ये आप 1989 में छपी ‘छायाकृति’ मैगजीन में जान सकते हैं...
वैसे आपको ये भी बताते चलें कि इस हादसे में 1000 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई थी और 2000 से ज़्यादा लोग ज़ख़्मी हुए थे... सोचिए कैसा दर्दनाक समां होगा उस वक्त कुंभ में... सोच कर ही डर लगता है...
बहरहाल, मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 1 मई, 2019 को 1954 के कुंभ मेले में मची भगदड़ का ज़िक्र किया था... बेशक, ये कुंभ के इतिहास की सबसे दुखद घटना है... सरकारें भले ही अपनी खामियों को छिपा ले जाएं, लेकिन इतिहास सबको बेनक़ाब करता आया है और आगे भी करता रहेगा...