चिकित्सा पद्धतियों में सामंजस्य की आवश्यकता
The need for harmonization of medical practices
Mon, 27 Oct 2025

(सत्य शील अग्रवाल – विनायक फीचर्स)
जब कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है, तो उसके सामने आमतौर पर तीन प्रमुख विकल्प होते हैं — एलोपैथी, आयुर्वेद और होम्योपैथी। हर व्यक्ति की अपनी मान्यता, विश्वास और पसंद होती है कि वह किस पद्धति से उपचार करवाए। यह उसका पूर्ण अधिकार है कि वह जिस चिकित्सा प्रणाली से सबसे अधिक संतुष्टि महसूस करे, उसी का चयन करे।
प्रत्येक चिकित्सा पद्धति की अपनी सीमाएँ हैं, परंतु उनकी विशेषताएँ भी कम नहीं हैं। इन सबका उद्देश्य एक ही है — मानव सेवा। इसलिए किसी भी पद्धति को हीन या महत्वहीन समझना न केवल गलत है, बल्कि मानवता का भी अपमान है। अक्सर यह देखा गया है कि एलोपैथिक चिकित्सक अन्य पद्धतियों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं और उन्हें अवैज्ञानिक मानते हैं। यह दृष्टिकोण न केवल रोगी को भ्रमित करता है, बल्कि चिकित्सा जगत में विभाजन भी पैदा करता है।

निस्संदेह, एलोपैथी ने शल्य चिकित्सा और आपातकालीन उपचार के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है, परंतु कुछ रोग ऐसे भी हैं जिनका स्थायी समाधान आयुर्वेद या होम्योपैथी से ही संभव होता है। आयुर्वेद जहाँ शरीर के संतुलन और रोग के मूल कारण को ठीक करने पर केंद्रित है, वहीं होम्योपैथी रोगी के समग्र स्वास्थ्य पर ध्यान देती है।
इसलिए आवश्यक है कि सभी चिकित्सा पद्धतियों के बीच एक स्वस्थ सामंजस्य स्थापित किया जाए। रोगी के हित में यह देखा जाए कि कौन-सी पद्धति से अधिक लाभ और दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्राप्त हो सकता है। चिकित्सा शिक्षा में भी यह व्यवस्था होनी चाहिए कि विद्यार्थियों को अन्य पद्धतियों की बुनियादी जानकारी दी जाए, ताकि वे रोगी को उचित सलाह दे सकें और आवश्यकता पड़ने पर संबंधित विशेषज्ञ के पास रेफर कर सकें।
किसी भी चिकित्सक द्वारा अपनी पद्धति को श्रेष्ठ और अन्य को महत्वहीन बताना चिकित्सा विज्ञान की मूल भावना के विरुद्ध है। सभी चिकित्सा प्रणालियाँ मानव कल्याण के लिए बनाई गई हैं। इसलिए चिकित्सकों को अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर रोगी के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी चाहिए और जिस पद्धति से रोग का बेहतर उपचार संभव हो, उसे अपनाने में संकोच नहीं करना चाहिए।
