सत्ता की सियासत में परिवारवाद: बिहार से राष्ट्रीय स्तर तक वंशवाद की गहरी जड़ें

Family politics in power: The deep roots of dynasticism from Bihar to the national level.
 
सत्ता की सियासत में परिवारवाद: बिहार से राष्ट्रीय स्तर तक वंशवाद की गहरी जड़ें

(कुमार कृष्णन -विनायक फीचर्स)

बिहार की सत्ता की सियासत में परिवारवाद का खेल आज भी जारी है। प्रदेश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों—बीजेपी, जेडीयू, आरजेडी (राजद) और रालोमो—ने टिकट वितरण में अपने सगे संबंधियों और सियासी घरानों के सदस्यों पर भरोसा जताया है। यह प्रवृत्ति दर्शाती है कि बिहार की राजनीति में वंशवाद केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि एक प्रभावी चुनावी रणनीति बन चुकी है। लगभग हर जिले में किसी न किसी बड़े सियासी घराने के बेटे, बेटी, दामाद, बहू या पत्नी चुनावी मैदान में हैं।

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बिहार में प्रमुख पारिवारिक समीकरण

बिहार में टिकट बंटवारे में पारिवारिक रिश्तों को प्राथमिकता देने के कई स्पष्ट उदाहरण सामने आए हैं:

  • हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम): जीतनराम मांझी ने गया की चार सीटों पर परिवार या रिश्तेदारों को उतारा है। इनमें उनके भतीजे रोमित कुमार (अतरी), समधिन ज्योति देवी मांझी (बाराचट्टी) और पतोहु दीपा मांझी (इमामगंज) शामिल हैं।

  • राष्ट्रीय लोक मोर्चा (रालोमो): उपेंद्र कुशवाहा की पत्नी स्नेहलता सासाराम से प्रत्याशी हैं।

  • लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास): चिराग पासवान ने सारण के गरखा से अपने भांजे सीमांत मृणाल को मैदान में उतारा है।

  • जदयू/राजद के उदाहरण:

    • गायघाट से जदयू प्रत्याशी कोमल सिंह की माँ वैशाली से सांसद हैं।

    • मीनापुर से जदयू ने पूर्व मंत्री दिनेश प्रसाद सिंह के बेटे अजय कुशवाहा को टिकट दिया।

    • साहेबगंज में राजद ने पूर्व मंत्री राम विचार राय के दामाद पृथ्वीनाथ राय को उम्मीदवार बनाया।

    • नवीनगर से जदयू ने आनंद मोहन और लवली आनंद के पुत्र चेतन आनंद को उतारा है।

राष्ट्रीय स्तर पर वंशवाद की स्थिति

आधिकारिक वेबसाइटों और चुनाव आयोग की रिपोर्टों से प्राप्त आँकड़े बताते हैं कि वंशवाद की समस्या केवल बिहार तक सीमित नहीं है, बल्कि देश के सभी राजनीतिक दलों में जड़ें जमा चुकी है।

राजनीतिक दल वंशवादी सदस्यों का अनुमानित प्रतिशत प्रमुख तथ्य
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 33.25% (सांसद, विधायक, विधान परिषद सदस्य) सिकुड़ती चुनावी उपस्थिति के बावजूद वंशवादी सूची में शीर्ष पर।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अनुमानित 18.62% (विधायकों में) राज्य विधानसभाओं या संसद में एक से अधिक सदस्य वाले परिवारों के मामले में भाजपा नंबर एक स्थान पर है।
तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) 51 विधायक वंशवादी (कुल 163 में से) -
जनता दल (यूनाइटेड - जदयू) 28 विधायक वंशवादी (कुल 81 में से) -

यह प्रवृत्ति द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे राष्ट्रीय विपक्ष के घटकों में भी प्रभावी है।

लोकतंत्र के लिए वंशवाद का खतरा

हालांकि लोकतंत्र में रिश्तेदारों के राजनीतिक उत्तराधिकार को रोकने वाला कोई नियम नहीं है, यह परंपरा कई कारणों से लोकतंत्र की मूल भावना के प्रतिकूल है:

  • योग्यता का सिद्धांत कमजोर: यह आदर्श रूप से लोकतंत्र को आम लोगों के लिए सुलभ बनाने के सिद्धांत के विपरीत है। राजनीतिक दल अक्सर योग्यतावान लोगों पर भरोसा करने के बजाय नेता के परिवार के सदस्यों के प्रति वफ़ादार रहना पसंद करते हैं।

  • नेतृत्व विकास में बाधा: यह पार्टियों को नई पीढ़ी के नेताओं को आगे बढ़ने के लिए तैयार करने से रोकता है।

  • अस्थिरता का खतरा: नेता के निधन या अयोग्यता की स्थिति में, परिवार की पकड़ आंतरिक कलह को बढ़ावा दे सकती है, जिससे दलबदल या राजनीतिक इकाई का विघटन हो सकता है।

डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि जिसमें नेतृत्व क्षमता हो वह आगे आए और राजनीति में वंशवाद की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन देश की आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी परिवारवाद की जड़ें मजबूत और गहरी होती चली गई हैं। यहाँ तक कि कांग्रेस पर सवाल खड़े करने वाली भाजपा और सामाजिक न्याय की बात करने वाली क्षेत्रीय पार्टियाँ भी इस प्रवृत्ति से अछूती नहीं हैं, अक्सर विरासत परिवार को ही सौंपती हैं।

यह दर्शाता है कि राजनीतिक संस्थाओं पर परिवार की पकड़ के कारण सामूहिक असंतोष के संकेत मिल रहे हैं, और भारत का तकनीकी पुनर्जागरण केवल महानगरों से नहीं, बल्कि ऐसे स्वाभिमानी शहरों से शुरू होता है जहाँ विचार और श्रम दोनों एक साथ जन्म लेते हैं।

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